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________________ १७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, १२. समुच्चयटेण सूचिदत्तादो । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउब्धिय-खेत्ताणि अदीदकाले तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि किण्ण होंति त्ति वुत्ते ण होति, इंदय-सेढीबद्धपइण्णएहि रुद्धसव्वखेत्तस्स तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागत्तादो। इंदयं-सेढीबद्ध-पइण्णएसु संचरंतेहिं णेरइयमिच्छाइट्ठीहि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो किण्ण पुसिज्जदि त्ति वुत्ते ण पुसिजदि, णेरइयाणं परखेत्तगमणाभावादो । परखेत्तगमणाभावे विहारवदिसत्थाणस्स अभावो पसजदि त्ति वुत्ते ण पसिजदे, एक्कम्हि इंदए सेढीबद्ध-पइण्णए च संविदगामागारबहुविधबिलगमणसंभवादो । असंखेजजोयणमेत्तायामसेढीबद्ध-पइण्णया अत्थि त्ति तिरियलोगस संखेन्जदिभागो होदि त्ति णासंकणिजं, असंखेजजोयणायामसेढीबद्ध पइण्णयाणं पि तिरियलोगस्स असंखेजदिमागत्तादो। मारणंतिय-उववादपदेहि णेरइयमिच्छादिट्ठीहि समाधान नहीं, क्योंकि, सूत्र में स्थित और समुच्चयार्थक 'वा' शब्दसे उक्त अर्थ सूचित किया गया है। शंका- अतीतकाल की अपेक्षा नारकी मिथ्या दृष्टियोंके बिहारवत्स्वस्थान, वेदनासमदघात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घातसम्बन्धी क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमात्र क्यों नहीं होते हैं ? समाधान नहीं होते हैं, क्योंकि, इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरकबिलासे रुद्ध भी सर्वक्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र ही होता है। शंका-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरकों में संचार करनेवाले नारकी मिथ्यादृष्टियोंने तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग क्यों नहीं स्पर्श किया ? समाधान नहीं स्पर्श किया है, क्योंकि, नारकियों का स्वक्षेत्रको छोड़कर परक्षेत्रमें गमन नहीं होता है। शंका-परक्षेत्रमें गमनका अभाव माननेपर विहारवत्स्वस्थानका अभाव प्राप्त होता है ? समाधान-विहारवत्स्वस्थानका अभाव नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, एक ही इन्द्रक, श्रेणीबद्ध या प्रकीर्णक नरकमें विद्यमान ग्राम, घर और बहुत प्रकारके बिलोंमें गमन सम्भव होनेसे विहारयत्स्वस्थानपद बन जाता है। शंका-असंख्यात योजनप्रमाण आयामवाले श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरक होते हैं, इसलिए तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग विहारवत्स्वस्थानका क्षेत्र बन जाता है ? समाधान-ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, असंख्यात योजन आयामवाले श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक नरक भी तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादपद्वाले नारकी मिथ्यादृष्टियोंने अतीतकालमें १ प्रतिषु ' इंदिय ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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