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________________ १, ४, १२.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं [१७५ अदीदकाले छ चोद्दसभागा देसूणा पोसिदा । ऊणपमाणं देसूणतिण्णिजोयणसहस्सं । तिरिक्खणेरइयाणं सव्वदिसासु गमणागमणसंभवो अत्थि त्ति छ चोद्दसभागा होति, कधं देखूणत्तं ? वुच्चदे-विग्गहो जीवाण किं सहेउओ, आहो अहे उओ त्ति ? ण ताव अहे उओ, णिकारणकजाणुवलंभादो । विदिये कारणं वत्तव्यमिदि । कम्मं तक्कारणं, संसारिजीवसव्वावत्थाणं कम्मवादरित्तकारणाणुवलंभादो । तत्थ वि आणुपुब्धिणामं चेव कारणं, अण्णासिं सब. पयडीणं पुध पुध कजाणमुवलंभादो, पुव्वुत्तरसरीराणमंतरालखेत्ते आणुपुबीए विवागो होदि त्ति गुरूवदेसादो वा । आणुपुविउदयाभावे वि मुक्कमारणंतियजीवाणं वक्कतुवलंभादो णाणुपुव्यिफलं विग्गहो त्ति णासंकणिज्जं, तस्स तित्थयरस्सेव पच्चासण्णविवागाणुपुब्धिफलत्तादो । अंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्तवाहल्लतिरियपदरम्हि सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे तत्थ जत्तिओ रासी तत्तियमेत्ताओ णिरयगइपाओग्गाणुपुवीए कुछ कम छह वटे चौदह (F) भाग स्पर्श किये हैं। यहांपर कुछ कमका प्रमाण देशोन तीन हजार योजन है। शंका-तिर्यंच और नारकियों का सर्व दिशाओंमें गमनागमन सम्भव है, इसलिए पूरे छह बटे चौदह (६) भाग ही स्पर्शन क्षेत्र होना चाहिए, फिर कुछ कम कैसे कहा ? समाधान-विग्रहगतिमें जीवोंके विग्रह क्या सहेतुक होते हैं, अथवा अहेतुक ? अहेतुक तो माने नहीं जा सकते हैं, क्योंकि, विना कारणके कार्य पाया नहीं जाता । यदि दूसरा पक्ष ग्रहण किया जाता है, अर्थात् विग्रह सहेतुक होते हैं, तो उसमें कारण कहना चाहिए ? विग्रहका कारण कर्म है, क्योंकि, संसारी जीवोंकी सर्व अवस्थाओंका कर्मको छोड़कर और कोई कारण पाया नहीं जाता है। उसमें भी आनुपूर्वीनामक नामकर्म ही विग्रहका कारण है; क्योंकि, अन्य सभी प्रकृतियोंके पृथक् पृथक् कार्य पाये जाते हैं, तथा पूर्वशरीरको छोड़नेके पश्चात् और उत्तरशरीरको ग्रहण करने के पूर्व अन्तरालवर्ती क्षेत्रमें आनुपूर्वीनामकर्मका विपाक ( उदय) होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। __ शंका-आनुपूर्वीनामकर्मके उदयके नहीं होनेपर भी मारणान्तिकसमुद्घात करनेवाले जीवोंके विग्रह पाये जाते हैं, इसलिए विग्रह आनुपूर्वीनामकर्मका फल है, ऐसा नहीं माना जा सकता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, कोंकि, वह विग्रह तीर्थंकरप्रकृतिके समान निकट भविष्यमें उदय होनेवाले आनुपूर्वीनामकर्मका फल है। शंका--सूच्यंगुल के असंख्यातवें भागमात्र बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें अर्थात् राजुके वर्गमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणा करनेपर वहां जो राशि अर्थात् आकाश प्रदेशोंकी संख्या आती है उतने प्रमाण नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वीकी प्रकृतियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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