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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १२. पयडीओ । लोगे सेढीए असंखेजदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे तिरिक्खगइपा ओग्गाणुपुबीए पयडिवियप्पा हति । पणदालीसजोयणलक्खबाहल्ले तिरियपदरे उड्डे कवाडछेदणयणिप्पण्णे सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे मणुसगदिपाओग्गाणुपुवीए पयडि वियप्पा होंति । णवजोयणसदबाहल्लतिरियपदरे सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्तओगाहणवियप्पेहि गुणिदे देवगदिपाओग्गाणुपुबीए पयडिवियप्पा होति ति वग्गणसुत्तादो आणुपुग्विणाम संडाणविवाई चेवेत्ति णासंकणिज्जं, तिस्से खेत्त-संहाणेसु वावादाए एकत्थेव वावारविरोहादो । ते च आगासपदेसा एत्थ चेव अच्छंति होती हैं । घनलोकमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाके विकल्पोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। पैंतालीस लाख योजन बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें ऊर्ध्वकपाटके छेदनेसे निष्पन्न क्षेत्रको जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहन-विकल्पोंसे गुणा करने पर मनुष्यगति-प्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। नौ सौ योजन बाहल्यवाले तिर्यग्प्रतरमें जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहन-विकल्पोंसे गुणा करनेपर देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके प्रकृति-विकल्प होते हैं। इन वर्गणाखंडके सूत्रों के अनुसार आनुपूर्वीनामा नामकर्मकी प्रकृति संस्थान अर्थात् पुद्गल विपाकी ही है। समाधान -ऐसी भी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, क्षेत्र और संस्थानों में व्यापृत अर्थात् क्षेत्रविपाकी और पुद्गलविपाकी होते हुए भी उस आनुपूर्वीप्रकृतिका एक ही अर्थमें व्यापार मान लेने में विरोध है। दूसरी बात यह भी है कि वे आकाशके प्रदेशके इसी १ एदाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि कधपुप्पण्णाणि त्ति भणिदे वुच्चदे- उड़ें कवाडच्छेदमणिप्पण्णाणि त्ति इदरेनिमाणुपुब्धिकम्माणं तिरियपदराणं घणलोगस्स य उप्पत्तिमपरूविय एदेसिं चेव तिरियपदराणमुप्पत्ती किमटुं परूविज्जदे ? लोगसंठाणपरूवणटुं । उड़कवाडमिदि एदेण लोगो णिद्दिट्ठो। कधमेसा लोगस्स सण्णा ? वुच्चदे- ऊर्ध्व च तत् कपाटं च ऊर्ध्वकपाटमिव लोकः। ऊर्ध्वकपाटं जेण लोगो चोद्दसरज्जुउस्से हो सत्तरज्जुरुंदो मज्झे उवरिमपेरंतो च एगरज्जुबाहलो उवरि बह्मलोगुद्देसे पंचरज्जुबाहल्लो मूले सत्तरज्जुबाहल्लो; अण्णस्थ अहाणुवडी बाहल्लो । तेण उष्टियकवाडोवमो । उडकवाडरस छेदणं उड़कवाड छेदणं तेण उडकवाडछेदणेण णिप्पण्णाणि एदापि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लातरियपदराणि । संपहि एत्थ उड़कवाडछेदणविहाणं वुच्चदे । तं जहासत्तरजरुंदत्तम्मि दोसु वि पासेसु तिण्णि तिण्णिरज्जुआयामेण एगरज्जुविक्खंभेण उड़कवाडं छेत्तव्वं । पुणो पणदालीसजोयणक्खुस्सेहं मोत्तण हेट्ठा उरि च मज्झिमपदेसे मुह १ भूमि ५ विसेसा ४ उच्छेद १ मजिदो वडिपमाणं होदि । एदीए वडीए पणदालीसजोयणलक्खेसु वडिदखेत्तं दोमु वि पासेसु अवणेदव्वं । एवमुडकवाड छेदणेण पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराण णिप्फणाणि । धवला अ. प्र. पत्र १२०६ (वर्गणाखंड) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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