________________
१, ४, १४.] फोसणाणुगमे णेरड्यफोसणपरूवणं
[१७७ त्ति ण णियमो अत्थि, समयाविरोहेण तेसिमवट्ठाणादो। तदो आणुपुविविवागापाओग्गखेत्त अवट्ठाणं उप्पण्णपढम विदिय-तदियवंकेसु णत्थि त्ति देसूणतं घडदे । एसो अत्थो उवरि सव्वत्थ जहावसरं परूवेदव्यो।।
सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ १३॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्ताणिओगद्दारे जो वुत्तो, सो वत्तव्यो । पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १४ ॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय वेउव्वियसमुग्घादगदेहि सासणसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो । तं जधाणेरइयाणं बिलाणि संखेजजोयणवित्थडाणि वि अत्थि, असंखेज्जजोयणवित्थडाणि वि । तत्थ जदि वि चदुरासीदिलक्खणेरइयावासा असंखेज्जजोयणवित्थडा होंति, तो वि सव्वखेत्तसमासो तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो चेव जधा होदि, तधा वत्तइस्सामो
स्थान विशेषपर ही रहते हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, उनका अवस्थान परमागमके अविरोधसे माना गया है।
इसलिए अनुपूर्वीनामकर्मके उदयके अप्रायोग्य क्षेत्रमें अवस्थान उत्पन्न होनेके प्रथम, द्वितीय और तृतीय विग्रहों में नहीं है, अतः देशोनता घटित हो जाती है। यह अर्थ ऊपर भी सर्वत्र यथावसर प्ररूपण करना चाहिए।
सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १३ ॥
इस सूत्रका अर्थ जो क्षेत्रानुयोगद्वार में कहा है वही यहांपर कहना चाहिए ।
उन्हीं सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १४ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवा भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वह इस प्रकारसे हैनारकियोंके बिल संख्यात योजन विस्तृत भी हैं और असंख्यात योजन विस्तृत भी हैं। उनमें यद्यपि चौरासी लाख नारकियोंके आवास असंख्यात योजन विस्तृत होते हैं, तो भी उन समस्त नारकावासका क्षेत्र-समास अर्थात् क्षेत्रोंका जोड़ तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग जिस प्रकारसे होता है, उस प्रकारसे कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org