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________________ १७८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १५. णिरयावासा के वि परिमंडलायारा, के वि तंसा, के वि चउरंसा, के वि पंचंसा, के वि छंसा । एदे सव्वे वि समीकरणे कदे चउरंसा असंखेज्जजोयणवित्थडा होति । सयलपरइयरासिणा घणंगुलस्स संखेज्जदिभागे गुणिदे वट्टमाणकाले णेरइएहि रुद्धखेत्तं होदि । वट्टमाणे णेरइयरुद्धणिरयबिलभागादो अरुद्ध भागो संखेज्जगुणो त्ति संखेज्जरूवेहि गुणिदे णेरइयाणमदीदसत्थाणखेत्तं होदि । तेण तिरियलोमस्स असंखेज्जदिभागतं ण विरुज्झदे । एवं 'वा' सद्दसूचिदस्स अत्थस्स परूवणा कदा होदि । सासणस्स णिरयगदीए उववादो णत्थि, सुत्ताडिसिद्धत्तादो । मारणंतियसमुग्वादगदेहि पंच चोदसभागा पोसिदा । कुदो ? सत्तमपुढवीदो सासगाणं मारणंतियकरणसंभवाभावा । तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेत्र सुत्तादो णव्यदे। सम्मामिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्टीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १५॥ नारकियोंके आवास कितने ही तो गोल आकारवाले होते हैं, कितने ही त्रिकोण, कितने ही चतुष्कोण, कितने ही पंचकोण और कितने ही नारकावास षट्कोण होते हैं । इन सभी आकारोंवाले नारकावासोंके समीकरण करनेपर वे चतुरस्र और असंख्यात योजन विस्तृत हो जाते है । सम्पूर्ण नारकराशिसे घनांगुल के संख्यात भागको गुणा वर्तमानकालमें नारकियोंसे रुद्ध-क्षेत्र होता है । वर्तमानकालमें नारकोंद्वारा रोके हुए नरकोंके बिल-भागसे अरुद्धभाग संख्यातगुणा होता है, इसलिए संख्यात रूपोंसे गुणा करनेपर नार. कोंका अतीतकालसम्बन्धी स्वस्थानक्षेत्रका प्रमाण हो जाता है। अतः तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग (जो ऊपर स्पर्शन-क्षेत्र बताया गया है, वह ) विरोधको नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार 'वा' शब्दसे सूचित अर्थकी प्ररूपणा की गई है। ___ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका नरकगतिमें उपपाद नहीं होता है, क्योंकि, उसका सूत्र में प्रतिषेध किया गया है। मारणान्तिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टियोंने पांच बटे चौदह (५८) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, सातवीं पृथिवीसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंका मारणान्तिकसमुद्धात करना संभव नहीं है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी ही सूत्रसे जाना जाता है कि सातवीं पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि नारकी मारणान्तिकसमुद्धात नहीं करते। (यदि करते होते, तो सूत्रमें छह बटे चौदह (६) भागके स्पर्शका उल्लेख होता)। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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