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१, ४, १५. ]
फोसणाणुगमे णैरइयफौसणं परूवणं
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सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउच्चिय समुग्धाद्गदेहि सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्ठीहि वट्टमाणकाले चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणूसदो संखेजण पोसिदो । कारणं खेत्तसिद्धं । अदीदकाले वि एदेहि दोहि विगुणहि देहि देहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो चेत्र पोसिदो, 'असंखेज्जजोय वित्थडा रइयसव्वावासा ' इदि मणेण संकप्पिय एगावासखेत्तफलं चउरासीदिलक्खरूवेहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तफलोवलंभादो । सम्मामिच्छाइट्ठीगं मारणंतिय-उववादपदा णत्थि । असजद सम्माइट्ठीहि मारणंतिय उववाद्गदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो वट्टमाणकाले पोसिदो । कारणं खेत्तसिद्धं । अदीदकाले मारणंतिय समुग्धादगदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणूसखेत्तादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । कुदो ? सव्वजीवाणं अवक्कमछक्कणियमदंसणादो, उड्ड गच्छ माणजीवाणं पि अप्पणो उप्पत्तिखेत्तमपावेदूण अंतरकाले चेव दिस-विदिसाणं गणाभावाद । णच उप्पत्तिखेत्तसमाणखेत्तंतरट्ठियाणं पि जीवाणमणियद्गमण मत्थि,
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कपायसमुद्धात और वैकि किसमुद्घातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवों ने वर्तमानकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणा से सिद्ध है । अतीतकाल में भी इन दोनों ही गुणस्थानवर्ती नारकी जीवोंने इन्हीं दोनों पदोंकी अपेक्षा सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग ही स्पर्श किया है, क्योंकि, ' असंख्यात योजन विस्तृत नारकियों के सर्व आवास होते हैं ' इस प्रकार मनसे संकल्प करके एक नारकावासका क्षेत्रफल चौरासी लाख रूपों से गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्रफल पाया जाता है । सभ्य ग्मिथ्यादृष्टि नारकियोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंने सामान्यलोक आदि चार लोकका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र वर्तमानकाल में स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणासे सिद्ध है ।
अतीतकाल में मारणान्तिकसमुद्धातगत असंयत सम्यग्दृष्टियोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, सर्व जीवों के अपक्रमषटुका नियम देखा जाता है (देखो प्रथम भा. पृ. १०० ) । तथा ऊपर जाने वाले जीवोंके भी अपने उत्पत्ति क्षेत्रको नहीं प्राप्त करके अंतरालकालमें ही निश्चित दिशाको छोड़कर अन्य दिशा या विदिशामें गमन करनेका अभाव है । और न उत्पत्तिक्षेत्र के समान अर्थात् समतल अन्य क्षेत्र पर स्थित जीवोंके भी अनियत गमन होता हैं, क्योंकि
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