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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ३, ३६.
बहु कधमेगवयणणिसो ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एगत्तुवलंभादो । अथवा मिच्छाइट्ठी इदि एसो बहुवयणणिद्देसो चेव । कधं पुण एत्थ विहत्ती गोवलब्भदे ! 'आइ-मज्झतवण्णसरलोवो' इदि विहत्तिलोवादो । सत्थाण - वेदण- कसाय मारणंतिय-उववादगदा ओरालिय मिस्सकायजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे । विहारवदिसत्थाण - वे उव्वियसमुग्धादा णत्थि तेण तेसिं विरोहादो । ओरालियमिस्सस्स वेउब्वियादिपदेहि भेदसंभवादो ओघणिसो ण घडदे ? ण एस दोस्रो, एत्थ विज्जमानपदाणं परूवणा ओघपरूवणाए तुल्लेति ओघत्तविरोधाभावादो ।
सासणसम्मादिट्टी असंजदसम्मादिट्टी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३६ ॥
एत्थ पुन्वसुतादो ओरालियमिस्सकायजोगो अणुवट्टदे | तेणेवं संबंधो भवदि
शंका – मिथ्यादृष्टियों के बहुत होने पर भी यहां सूत्रमें एक वचनका निर्देश कैसे किया गया ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि संख्या की अपेक्षा बहुतसे भी जीवों के जातिकी विवक्षासे एकत्व पाया जाता है । अथवा, 'मिच्छाइट्ठी ' यह पद बहुवचनका ही निर्देश समझना चाहिए ।
शंका- तो फिर यहां बहुवचनकी विभाक्त क्यों नहीं पाई जाती है ?
समाधान - 'आदि, मध्य और अन्तके वर्ण और स्वरका लोप हो जाता है, ' इस प्राकृतव्याकरणके सूत्रानुसार बहुवचनकी विभक्तिका लोप हो गया है।
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद पदगत औदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं। यहांपर विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि, औदारिकमिश्रकाययोगके साथ इन दोनों पदोंका विरोध है ।
शंका – औदारिकमिश्रकाययोगका वैक्रिार्यकसमुद्धात आदि पदों के साथ भेद पाया पाया जाता है, अतएव सूत्र में 'ओघ' पदका निर्देश घटित नहीं होता है ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यहां औदारिकमिश्रकाययोगमें विद्यमान स्वस्थान आदि पदोंकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा के तुल्य है, इसलिए ओघपना विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवल कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ३६ ॥
इस सूत्र में पूर्व सूत्र से ' औदारिकमिश्रकाययोग' इस पदकी अनुवृत्ति होती है ।
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