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________________ १, ३, ३५.] खेत्ताणुगमे जोगमग्गणाखेत्तपरूवणं [१०५ सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३४॥ कधं सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जदिभागे ? ण एस दोसो, ओरालियकायजोगे णिरुद्धे ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोगसहगदकवाड-पदर-लोगपूरणाणमसंभवादो । सासणसम्मादिहि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो णत्थि। पमत्ते आहारसमुग्घादो णत्थि । सेसं जाणिय वत्तव्वं । __ ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ३५ ॥ द्धातको प्राप्त औदारिककाययोगी जीवोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग बताया है, तब शंका की जा सकती है कि वैक्रियिकशरीरवाले जीवेंके वैक्रियिकसमुद्धातका क्षेत्र तो तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग बतलाया गया है, फिर यहां उसका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असं. ख्यातवां भाग क्यों कहा? इस आशंकाका समाधान करते हुए धवलाकार कहते हैं कि यहां पर औदारिककाययोगका प्रकरण है, अतएव औदारिकशरीरवाले मनुष्य और तिर्यंचोंके जो वैक्रियिकसमुद्धात होता है, उसका क्षेत्र तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही हो सकता है, अधिक नहीं। हां, चैक्रियिकशरीरवाले देवादिकोंके जो वैक्रियिकसमुद्धात होता है उसका क्षेत्र अवश्य तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु उसका यहां प्रकरण नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोगका क्षेत्र-कथन करते समय वैक्रियिककाययोगिसहगत वैक्रियिक समुद्धातका क्षेत्र कहना असंभव है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिककाययोगी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३४ ॥ शंका-सयोगिकेवली भगवान् लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, इतना ही क्यों कहा? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, औदारिककाययोगसे निरुद्ध क्षेत्रका वर्णन करते समय औदारिकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोगके साथमें होनेवाले कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धातोंका होना संभव नहीं है। इसलिए औदारिककाययोगी सयोगि केवली लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं, ऐसा कहा है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिककाययोगी जीवोंके उपपादपद नहीं होता है । प्रमत्तगुणस्थानमें आहारकसमुद्धातपद भी नहीं है, क्योंकि, यहांपर औदारिककाययोगियोंका क्षेत्र बताया जा रहा है। शेष गुणस्थानों में यथासंभव पद जानकर कहना चाहिए। - औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघके समान सर्वलोकमें रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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