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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
सजोगिकेवली ओघं ॥ ३२ ॥
sarasो किण्ण कदो ? ण, सजोगिम्हि लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु सव्वलोगे वा इदि विसेसुबलं भादो । ओरालियकायजेोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ ३३ ॥
[ १, ३, ३२.
दे सत्थाण- वेदण-कसाय-मारणंतिय समुग्धादगदा सव्वलोए, सुहुमपजत्ताणं सव्वलोगखेत्ते संभवादो' । उववादो णत्थि, णिरुद्वोरालियकाय जोगादो । विहारव दिसत्थाणगदा तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, तसपजत सिस्स संखे दिभागस्स संचारो होदि ति गुरुवएसादो । अड्डा इजादो असंखे जगुणे । वेउच्त्रियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखे जगुणे, ओरालियकायजोगे णिरुद्वे वेउब्वियकाय जोगि सहगद वेउच्त्रियसमुग्धादस्स असंभवादो ।
काययोगवाले सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघसयोगिकेवलीके क्षेत्र के समान है ॥३२॥
शंका - सासादनादि गुणस्थानप्रतिपन्न सभी जीवोंका एक योग क्यों नहीं किया ? अर्थात् पूर्वोक्त ' सासणसम्मादिट्टिप्पाहुडि ' इत्यादि सूत्रका और इस 'सजोगिकेवली ओघं' सूत्रका एक समास क्यों नहीं किया ?
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समाधान- नहीं, क्योंकि, सयोगिकेवलीके क्षेत्र में, 'सयोगिकेवली लोकके असंख्यात बहुभागों में और सर्व लोक में रहते हैं ' इस प्रकारका विशेष कथन पाया जाता है, इसलिए उक्त दोनों सूत्रोंका एक योग नहीं किया ।
औदारिककाय योगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका क्षेत्र ओघ के समान सर्व लोक है ||३३||
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और मारणान्तिकसमुद्धातगत ये औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव सर्व लोकवर्ती क्षेत्रों में संभव हैं । किन्तु उक्त जीवोंके उपपादपद नहीं होता है, क्योंकि, यहां पर औदारिककाययोगसे निरुद्ध जीवोंका क्षेत्र बताया जा रहा है । विहारवत्स्वस्थानवाले औदारिककाययोगी जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, और तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागमें रहते हैं, क्योंकि, समस्त त्रसपर्यायराशिके संख्यातवें भागका ही संचार (विहार) होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है । उक्त औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। वैक्रियिकसमुद्धातगत औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, औदारिककाययोगसे निरुद्ध क्षेत्रका वर्णन करते समय वैक्रियिककाययोगी जीवोंके होनेवाला वैक्रियिकसमुद्धात असंभव है ।
विशेषार्थ - इस उक्त कथनका अभिप्राय यह है कि अभी ऊपर वैक्रियिकसमु
१ सव्वत्थ निरंतर सुहुमा । गो. जी. १८४.
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