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________________ ८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, १५. खेज्जदिभागमेत्तवेउब्बियखेत्तस्सप्पसंगादो । मारणंतिय-उववादाणं देवोधभंगो । उववादखेतं ठविज्जमाणे विक्खंभसूचीगुणिदसेटिं ठविय पलिदोवमस्त असंखेज्जदिभाएण सोहम्मीसाणउवक्कमणकालेण ओवहिदे उप्पज्जमाणजीवा होंति । असंखेज्जजोयणविदियदंडेण उप्पज्जमाणजीवे इच्छिय अवरो पलिदोममस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्यो। एक्कपदरंगुलविक्खंभेण सेढीए संखेज्जदिभागायामेण खेत्तं पुसंति त्ति पदरंगुलगुणिदसेढीए संखेज्जदिभागो गुणगारो ठवेदव्यो । सम्वत्थ उजुगदीए उप्पज्जमाणजीवे हितो विग्गहगदीए उप्पज्जमाणजीवा असंखेज्जगुणा। कुदो ? सेढीदो उस्सेढीए बहुत्तुवलंभादो । भवणवासियउववादखेत्तं व तिरियलोगस्स असंखेज्जदिभागो किं ण होदि ति वुत्ते ण होदि, पभापत्थडे उप्पज्जमाणाणं तिरिक्खाणं सव्येसि पि सेढीए संखेज्जदिभागायामो विदियदंडस्स लब्भदे, तेणेदमुववादखेत्तं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं ति। सेसगुणट्ठाणाणं देवभंगो । सणक्कुमारप्पहुडि जाव उवरिम-उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छादिट्ठी ओघभगो । क्योंकि, ऐसा माननेपर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण वैक्रियिकसमुद्धातगत क्षेत्रके माननेका प्रसंग आ जाता है। सौधर्म और ईशानकलपमें देवमिथ्यादृष्टियोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादसम्बन्धी क्षेत्र देवसामान्यके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगतकं समान जानना चाहिये। उपपादक्षेत्रके स्थापित करते समय सौधर्म-ऐशान देवमिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भसूचीसे गुणित जगश्रेणीको स्थापित करके पल्योपमके असंख्यात भागरूप सौधर्म और ऐशानसम्बन्धी उपक्रमणकालसे अपवर्तित करनेपर उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। पुनः असंख्यात योजनरूप दूसरे दंडसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंको लाना इष्ट है, ऐसा समझकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण एक दूसरा भागहार स्थापित करना चाहिये। तथा एक प्रतरांगुल. प्रमाण विष्कम्भसे और जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण आयामसे क्षेत्रके स्पर्श करते हैं, इसलिये प्रतरांगुलगुणित जगश्रेणीका संख्यातवां भागप्रमाण गुणकार स्थापित करना चाहिये । सर्वत्र ऋजुगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी अपेक्षा विग्रहगतिसे उत्पन्न होनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि, श्रेणीकी अपेक्षा उच्छोणियां बहुत पाई जाती हैं। शंका-सौधर्म और ईशान कल्पके देवोंका उपपादक्षेत्र भवनवासी देवोंके उपपादक्षेत्रके समान तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, सौधर्म ईशान कलाके इकतीसवें प्रभापटलमें उत्पन्न होनेवाले सभी तिर्यंचोंके दूसरे दंडका आयाम जगश्रेणीके संख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। इसलिये सौधर्म और ईशानकलाके देवोंका उपपादक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता है, यह सिद्ध हुआ। सौधर्म और ईशानकल्पके देवोंके शेष गुणस्थानोंके स्वस्थानखस्थान क्षेत्रका कथन देवसामान्यके स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके समान जानना चाहिये । सनत्कुमारकल्पसे लेकर उपरिम-उपरिमौवेयक तक मिथ्यादृष्टि देवोंका स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्र ओघ मिथ्यादृष्टिके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्रके समान है । तथा उन्हींके सासादन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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