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१, ४, १७३.] फोसणाणुगमे उवसमसम्मादिट्टिफोसणपरूवणं [३०५ परिणदाणमोघत्तं णत्थि, ओघम्हि उत्तं अट्ठ-चोद्दसभागखेत्तं मोतूण चदुण्हं लोणाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणमेत्तपोसणखेत्तुवलंभा। कुदो ? मणुसगदि मोत्तूण अण्णत्थ उवसमसम्मत्तेण सह मरणाणुवलंभा ? ण एस दोसो, मारणंतिय-उववादे मोत्तूण सेसपदेहि सरिसत्तमत्थि त्ति ओघत्तुववत्तीदो ।
संजदासंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १७३ ॥
एदस्स सुत्तस्स वट्टमाणपत्रणा खेत्तभंगा। सत्थाण-विहार-वेदण-कसाय-वेउब्वियपरिणदउवसमसम्मादिहि-संजदासंजदेहि तीदे काले तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो, मणुसगदीए चेव मारणंतियदसणादो । सेससव्वगुणट्ठाणाणमोघभंगो ।
किन्तु मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत जीवोंके ओघपना नहीं बनता है, क्योंकि, ओघमें कहा गया आठ बटे चौदह (1) भागप्रमाण क्षेत्र छोड़कर सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणे प्रमाणवाला स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है। और इसका कारण यह है कि मनुष्यगतिको छोड़कर अन्यत्र उपशमसम्यक्त्वके साथ मरण नहीं पाया जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दोनों पदोंको छोड़कर शेष पदों के साथ सदृशता है, इसलिए ओघपना बन जाता है।
संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषायवीतरागछयस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७३ ॥
इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्खस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि मनुष्यगतिमें ही उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात देखा जाता है। शेष सर्व गुणस्थानोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है।
१ शेषाणां लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८.
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