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________________ ३०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १७४. सासणसम्मादिट्ठी ओघं॥ १७४ ॥ सम्मामिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १७५॥ मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १७६ ॥ एदाणि तिणि वि सुत्ताणि अगदत्याणि, ओघम्हि परूविदत्तादो । तद। एदेसि परूवणा ण कीरदे । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता। सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ १७७ ॥ एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तभंगा, समल्लीणवट्टमाणकालत्तादो । अट्ठ चोदसभागा देसूणा, सव्वलोगो वा ॥ १७८ ॥ सत्थाणपरिणदेहि सणिमिच्छादिट्ठीहि तीदे काले तिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७४ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७५ ॥ मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १७६ ॥ ये उक्त तीनों ही सूत्र ओघमें प्ररूपित होनेसे अवगतार्थ है, अर्थात् इनका अर्थ जाना हुआ है । इसलिए इनकी प्ररूपणा नहीं की जाती है। इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई। संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७७ ॥ वर्तमानकालको आश्रय करनेसे इस सूत्रकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। संज्ञी जीवोंने अतीत और वर्तमानकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १७ ॥ स्वस्थानस्वस्थानपरिणत संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यात १ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टिमिथ्यादृष्टीना सामान्योक्तम् । स. सि. १,८. २ संज्ञानुवादेन संझिना चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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