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________________ २९८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, १५९. खेज्जगुणो; विहार-वेदण-कसाय-वेउब्धिय-मारणंतियपरिणदेहि देसूण? चोद्दसभागा पोसिदा। उववादपरिणदेहि देसूणपंच चोदसभागा पोसिदा। णवरि सम्मामिच्छादिहिस्स मारणंतियउववादा णत्थि । संजदासंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो॥ १५९ ॥ - एदं पि सुत्तं सुगम. खेत्ताणिओगद्दारे उत्तत्थादो। उत्तमेव किमिदि पुणो उच्चदे ? ण, मंदबुद्धिसिस्सस्स संभालणटुं तप्परूवणादो। पंच चोदसभागा वा देसूणा ॥ १६०॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउव्वियपरिणदेहि पम्मलेस्सियसंजदासंजदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अढाइज्जादो असंखेज्जगुणो; मारणंतियपरिणदेहि देसूणा पंच चोदसभागा पोसिदा । तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिकपदपरिणत पद्मलेश्यावाले उक्त जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं। उपपादपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (५४) भाग स्पर्श किये हैं। विशेष बात यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। पालेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। १५१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रानुयोगद्वारमें इसका अर्थ कहा जा चुका है। शंका- पहले कही गई बात ही पुनः क्यों कही जाती है ! समाधान नहीं, क्योंकि, मंदबुद्धि शिष्योंके संभालने के लिए पुनः उसका प्ररूपण किया गया है। पालेश्यावाले संयतासंयत जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ १६॥ स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकपदपरिणत पन. लेश्यावाले संयतासंयतोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । मारणान्तिकसमुद्धातपदपरिणत उक्त जीवोंने कुछ कम पांच बटे चौदह (५४) भाग स्पर्श किये हैं। १ पम्मस्स य सट्ठाणसमुग्घाददुगेसु होदि पदमपदं । अडचोदसभागा वा देसूणा होति णियमेण ॥ गो. जी. ५४८. २ उववादे पढमपदं पण चोद्दस भागयं च देसूर्ण । गो. जी. ५४९. ३ संयतासंयतैलॊकस्यासंख्येयभागः पंच चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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