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१, १, १३३. फोसणाणुगमे संजदफोसणपरूवणं
[२८५ एदस्स अत्थो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो, केवलणाणवदिरित्तसजोगिकेवलीणमभावा ओघसजोगिपरूवणाणं पडि सामण्णा ।
अजोगिकेवली ओघं ॥ १३१ ॥
एदस्स वि अत्थो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो । पुध सुत्तारंभो किमहो ? ण, सजोगि-अजोगिकेवलीणं वट्टमाणादीदकालेण पच्चासतीए अभावादो एगजोगत्ताणुववचीए ।
एवं णाणमग्गणा समत्ता । संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १३२ ।।
एत्थ ओघपरूवणादो ण को वि' भेदो अस्थि, विवक्खिदसंजमसामण्णादो । ण च संजमसामण्णविरहिदा संजदा अस्थि, तेसिमसंजदत्तप्पसंगादो ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ १३३ ॥
__ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि, ओघमें प्ररूपण किया जा चुका है। दूसरी बात यह भी है कि केवल मानसे रहित सयोगिकेवलियोंके अभाव होनेसे ओघवर्णित सयोगिजिनोंकी प्ररूपणाओं के प्रति समानता है।
केवलज्ञानियों में अयोगिकेवली जिनोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३१॥ ओघमें प्ररूपित होनेसे इस सूत्रका भी अर्थ सुगम है। शंका-तो फिर पृथक् सूत्रका आरंभ किसलिए किया गया है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, सयोगी और अयोगिकेवलियोंके वर्तमान और अतीत. कालके साथ प्रत्यासत्तिका अभाव होनेसे एक योगपना बन नहीं सकता था, अतः पृथक् सूत्रारंभ किया गया है।
इसप्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है॥१३२॥
यहांपर ओघप्ररूपणासे कोई भी भेद नहीं है, क्योंकि, संयमसामान्यकी विवक्षा है। भौर संयमसामान्यसे रहित संयत होते नहीं हैं। यदि संयमके विना भी संयमी होने लगे; तो फिर असंयतपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा।
संयतोंमें सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र ओषके समान है ॥ १३३ ।।
१ संयमानुवादेन संयताना सर्वेष x x सामान्योक्त स्पर्शनम् । स. सि. १, ८.
प्रतिषु · को स्थि' म प्रतौ को छि' इति पाठः।
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