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________________ २८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १३४. - पुध सुत्तारंभो किमट्ठो ? ण, पुबिल्लेहि सह फोसणेण पच्चासत्तिअभावप्पदंसणफलत्तादो । सेसं सुगमं । सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ १३४ ॥ एदं पि सुत्तं सुगममिदि ण एत्थ किंचि वत्तव्यमस्थि । - परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त-अपमत्तसंजदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो ॥ १३५॥ . एदस्स वट्टमाणपरूवणा खेत्तभंगा । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउब्बियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागो; मारणंतियपरिणदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो तीदे काले फोसिदो । पमत्ते तेजाहारं णत्थि, लद्धीए उवरि लद्धीणमभावा । शंका-तो फिर पृथक् सूत्रका आरंभ किसलिए किया गया है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, पूर्वोक्त जीवोंके स्पर्शनके साथ सयोगिकेवलीके स्पर्शनसे प्रत्यासत्तिके अभावका प्रदर्शन करना ही पृथक् सूत्रका फल है। शेष अर्थ सुगम है। - सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥१३४॥ ___ यह सूत्र भी सुगम है, इसलिए यहांपर कुछ भी वक्तव्य नहीं है। . परिहारविशुद्धिसंयतोंमें अमन और अप्रमत्तसंयतोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श किया है ॥ १३५॥ इस सूत्रकी वर्तमानकालिक स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, घेदना, कषाय और वैक्रियिकपद परिणत उक्त जीधोंने सामान्यलोक आदि धार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग तथा मारणान्तिकपदपरिणत उक्त जीवोंने सामान्यलोक आदि बार लोकोंका असंण्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है। विशेष बात यह है कि प्रमत्तगुणस्थानमें तैजससमुद्धात और आहारकसमुदात, ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि, लब्धिके ऊपर दूसरी कब्धियां नहीं होती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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