________________
१, ४, १३८.] फोसणाणुगमे संजद-संजदासजदफोसणपरूवणं [२८७
सुहुमसांपराइयमुद्धिसंजदेसु मुहुमसांपराइय उवसमा खवा ओघं ॥ १३६ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्यो सुगमो, ओघम्हि परूविदत्तादो । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुट्टाणी ओघं ॥ १३७॥
चदुण्डं टाणाणं समाहारो चदुट्ठाणी; सा ओघं भवदि, जहाक्खादसंजदचदुगुणट्ठाणाणं परूवणा ओघसरिसा ति जं वुत्तं होदि ।
संजदासंजदा ओघं ॥ १३८ ॥ ___ संजमाणुवादेण संजमासंजम-असंजमाणं कधं गहणं होदि ? एसो संजमाणुवादो ण संजममेव परूवेदि, किंतु संजमं संजमासंजममसंजमं च । तेणेदेसि पि गहणं होदि । जदि एवं, तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवादववदेसो ण, जुजदे ? ण, अंब-णिबवणं व पाधण्णपदमासेज संजमाणुवादववदेसजुत्तीए । सेसं सुगमं ।
सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक और क्षपक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३६ ॥ __ ओघमें प्ररूपित होनेसे इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
यथाख्यातविहारविशुद्धिसंयतोंमें अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ।। १३७॥
चार स्थानोंके समाहारको चतुःस्थानी कहते हैं। उन चारों गुणस्थानोंकी स्पर्शनप्ररूपणा ओघके समान होती है । अर्थात्, यथाख्यातसंयमवाले अन्तिम चार गुणस्थानोंकी प्ररूपणा ओघके सदृश होती है, ऐसा कहा गया समझना चाहिए।
संयतासंयत जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघके समान है ॥ १३८ ॥
शंका-संयममार्गणाके अनुवादसे संयमासंयम और असंयम, इन दोनोंका ग्रहण कैसे होता है?
समाधान-संयममार्गणाके अनुवादसे न केवल संयमका ही ग्रहण होता है, किन्तु संयम, संयमासंयम और असंयमका भी ग्रहण होता है।
शंका-यदि ऐसा है तो इस मार्गणाको संयमानुवादका नाम देना युक्त नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, 'आम्रवन' वा 'निम्बवन' के समान प्राधान्यपदका आश्रय लेकर 'संयमानुवादसे ' यह व्यपदेश करना युक्तियुक्त हो जाता है।
शेष सूत्रका अर्थ सुगम ही है। १xx संयतासंयताना xx सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १,८,
..........
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org