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________________ १३३ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, ३, ७८. अभवसिद्धिएसु मिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, सबलोए ॥ ७८ ॥ सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा अभवसिद्धिया सव्वलोगे । विहारवदिसत्थाण-वेउबियपदविदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कुदो? तसरासिमस्सिदूण वुत्तबंधप्पाबहुगसुत्तादो णज्जदे। तं जधा- सबथोवा धुवबंधगा। सादियबंधगा असंखेज्जगुणा । अणादियबंधगा असंखेज्जगुणा | अद्धवबंधगा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? धुवबंधगेणूणसादियबंधगमेत्तेण । तसेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्ता चेव अभवसिद्धिया होंति त्ति एवं कुदो गव्यदे ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तसादियबंधगेहितो असंखेज्जगुणहीणतणहाणुववत्तीदो । सादियबंधगा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता त्ति कुदो णचदे ? जुत्तीदो। का जुत्ती ? बुच्चदे अभव्यसिद्धिक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ७८ ॥ - स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्ध त और उपपाद पदको प्राप्त अभव्यसिद्धिक जीव सर्व लोकमें रहते हैं। विहारयत्स्वस्थान और वैक्रियिक पदस्थित अभव्यसिद्धिक जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । . . . शंका-यह कैसे जाना कि विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धातगत अभध्यजीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ? समाधान-सराशिका आश्रय करके कहे गये बंधसम्बन्धी अल्पबहुत्वानुयोगद्वारके सूत्रोंसे यह जाना जाता है। वह इस प्रकार है-'ध्रुवबंधक सबसे कम हैं। ध्रुवयंधकोंसे सादिबंधक असंख्यातगुणे हैं। सादिबंधकोंसे अनादिबंधक असंख्यातगुणे हैं । अनादिबंधकोंसे अधुवबंधक विशेष अधिक हैं। कितने मात्र विशेषसे अधिक हैं ? ध्रुव. पंधकोंसे हीन सादिबंधकोंकी राशिके प्रमाणसे अधिक हैं। शंका-त्रसजीवों में पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही अभव्यासिद्धिक जीव होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ? ' समाधान-पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र सादिबंधकोंसे धुवबंधकोंके असं. ख्यातगुणहीनता अन्यथा बन नहीं सकती है, इस अन्यथानुपपत्तिसे जाना जाता है कि असराशिमें अभव्यसिद्धिक जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होते हैं। शंका-सादिबंध करनेवाले जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होते हैं, यह कैसे जाना? १ अभव्यानां सर्वलोकः । स. सि. १,.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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