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________________ १, ३, ७७.] खेताणुगमे भत्रियमग्गणाखेत्तपत्वगं [११ मिच्छादिटिप्पहुडि सव्वगुणट्ठाणेसु मारणंतिय-उववादपदेसु जीवा संखेजा चेव । सजोगिकेवली ओघं ॥ ७६॥ एदं सुत्तं सुगमं । जधा कसायमग्गणाए अकसाइया वुत्ता, तधा एत्थ लेस्सामग्गणाए अलेस्सिया किण्ण वुत्ता त्ति भणिदे वुच्चदे- जत्थ दव्वं पहाणीभूदं, तत्थ भणिदं होदि । जत्थ पुण पज्जवो पहाणो, तत्थ ण होदि। लेस्सामग्गणा पुण पजयपहाणा एत्थ कदा, तेण अलेस्सिया ण परूविदा । एवं लेस्सामग्गणा समत्ता । भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगि: केवली ओघं ॥ ७७॥ ___एदं सुत्तं सव्वं पि मूलोघादो अविसिद्धमिदि मूलोधपज्जवट्टियपरूवणं लमदे । कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक शेष सभी गुणस्थानों में मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दोनों पदों में शुक्ललेश्यावाले जीव संख्यात ही होते हैं। शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ७६ ॥ यह सूत्र सुगम है। शंका-जिस प्रकार कषायमार्गणामें अकषायी जीवोंका क्षेत्र बतलाया गया, उसी प्रकार यहां लेश्यामार्गणामें अलेश्य जीवोंका क्षेत्र क्यों नहीं कहा ? समाधान-ऐसी आशंका करने पर कहते हैं-जिस मार्गणामें द्रव्य प्रधानतासे प्रहण किया गया है, उस मार्गण में तो प्रतिपक्षी ' अकषायी' आदिका क्षेत्र आदि कहा गया है। किन्तु जिस मार्गणामें पर्याय प्रधान है, उस मार्गणामें प्रतिपक्षी 'अलेश्य' आदिका क्षेत्र निरूपण नहीं किया गया है। यहां पर लेश्यामार्गणा पर्याय-प्रधान कही गई है, इसलिए अलेश्य जीवों का क्षेत्र नहीं कहा गया है। इस प्रकार लेश्यामार्गणा समाप्त हुई । ___ भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिक जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है।। ७७॥ __ यह सम्पूर्ण ही सूत्र मूल-ओघसे अविशिष्ट है, इसलिए मूल-ओघ-पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणाको प्राप्त होता है, अर्थात् , भव्यजीवोंका क्षेत्र ओघमें कहे गये क्षेत्रके समान ही है । -- १ सयोगकेवलिनामलेश्यानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि. १, ८. भव्यानुषादेन भव्यानां चतुर्दशाना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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