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________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [१९७ खेत्तफले गुणिदे कालोदयसमुदस्स खेतफलं होदि । लवणसमुद्दादो पोक्खरसमुहो खेत्तगुणिदेण चत्तारिसदछण्णउदिमेत्तगुणो होदि । तम्हि गुणगारे आणिज्जमाणे तिणि समुद्दा त्ति कट्ट रूवूणं करिय विरलिय रूवं पडि सोलस दाद्ग अण्णोण्णम्भासे कदे वेसदछप्पण्णा हॉति । ते दुगुणिय पुध दुविय पुणो पुबिल्लविरलगमेव विरलिय रूवं पडि चत्तारि दादूग अण्णोण्णगुणं करिय उप्पण्णरासिं दुगुणरासीदो अवणिदे पोक्खरसमुदस्स गुणगारसलागा होति । तेहि लवणसमुदखेत्तफले गुणिदे पोक्खरसमुद्दस्प्त खेत्तफलं होदि । पुणो चउत्थसमुद्दो लवणसमुदं दट्टणट्ठावीससदाहिय अट्ठसहस्सगुणो होदि । एदस्स गुणगारस्स उप्पत्ती वुच्चदे- चत्तारि रूवणे करिय विर. लिय रूवं पडि सोलस दादण अण्णोण्णगुणे कदे छण्णउदिरूवाहियचत्तारिसहस्साणि होति । ते दुगुणिय पुध दृविय पुबिल्लविरलणरासि विरलिय रूवं पडि चत्तारि दादण अण्णोण १६ उदाहरण-कालोदधि लवणसमुद्रसे दूसरा समुद्र है, अतः क्रमशलाका २. २-१ = १, १-१६, १६४२-४ = २८. कालोदकसमुद्रकी गुणकारशलाका. कालोदकसमुद्रकी गुणकारशलाकाओं द्वारा लवणसमुद्रके क्षेत्रफलको गुणा करने पर कालोदकसमुद्रका क्षेत्रफल हो जाता है । लवणसमुदकी अपेक्षा पुष्करसमुद्र क्षेत्रफलकी अपेक्षा चारसौ छयानवे गुणा है। उसका गुणकार निकालने के लिए पुष्करसमुद्र तीसरा है, इसलिए तीनमेंसे एक कम करके शेष बचे दोका विरलनकर एक एक रूपके प्रति सोलह देकर परस्परमें गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं । उन्हें दुगुणा करके पृथक् स्थापित कर पुनः पहिलेके विरलनको ही विरलित कर प्रत्येक रूपके प्रति चार देकर और परस्परमें गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसे उसीकी दूनी राशिमेले घटाने पर पुष्करसमुद्रकी गुणकारशलाकाएं होती है। उदाहरण-पुष्करसमुद्रकी क्रमशलाका ३. १६४१६ ३-१-२, १% २५६, २५६४२=५१२. ४४४ घिरलनराशि २, १ १ १६, ५१२ - १६% ४९६ पुष्करसमुद्रकी गुणकारशलाका. इन गुणकारशलाकाओंसे लवणसमुद्र के क्षेत्रफलको गुणा करने पर पुष्करसमुद्रका क्षेत्रफल हो जाता है । पुनः चौथा समुद्र लवणसमुद्रको देखते हुए आठ हजार एक सौ अट्ठाईस गुणा है । इस गुणकारकी उत्पत्ति कहते हैं ___ चारमेले एक कम करके शेषको विरलनकर और प्रत्येक रूपके प्रति सोलह देकर परस्पर गुणा करनेपर चार हजार छयानवै होते हैं। उन्हें दुगुणाकर पृथक् स्थापनकर पहलेकी विरळनराशिको विरलित कर सपके प्रति चार देकर परस्पर गुणा करनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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