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( २३ )
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
।
जावें तो चौदह भाग होते हैं
1
।
उसका उतना ही स्पर्शनक्षेत्र
१२
कि
चौदह राजु ऊंची लोकनाली अवस्थित है । इसे साली भी कहते है, क्योंकि, त्रसजीवोंका संचार इसके ही भीतर होता है । केवल कुछ अपवाद हैं, जिनमें कि इसके भी बाहर त्रस - जीवोंका पाया जाना संभव है इस त्रसनालीके एक एक राजु लम्बे, चौड़े और मोटे भाग बनाए उनमें से जो जीव जितने घनराजुप्रमाण क्षेत्रको स्पर्श करता है, माना जाता है । जैसे प्रकृत में सासादनसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र आठ बटे ( ४ ) या बारह बटे चौदह ( 27 ) भाग बताया गया है। इनमेंसे विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने उक्त त्रसनाल के चौदह भागोंमेंसे आठ भागोंको स्पर्श किया है, अर्थात् आठ घनराजुप्रमाण त्रसनाली के भीतर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है जिसे अतीतकालमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने ( देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी, इन सभीने मिलकर ) स्पर्श न किया हो । यह आठ घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्रसनालीके भीतर जहां कहीं नहीं लेना चाहिए, किन्तु नीचे तीसरी वालुका पृथिव लेकर ऊपर सोलहवें अच्युतकल्प तक लेना चाहिये । इसका कारण यह है कि भवनवासी देव स्वतः नीचे तीसरी पृथिवी तक विहार करते हैं, और ऊपर सौधर्म विमान के शिखरध्वजदंड तक । किन्तु उपरिम देवोंके प्रयोगसे ऊपर अच्युतकल्प तक भी विहार कर सकते हैं [ देखो. पृ. २२९ ] । उनके इतने क्षेत्रमें विहार करनेके कारण उक्त क्षेत्रका मध्यवर्ती एक भी आकाशप्रदेश ऐसा नहीं बचा है कि जिसे अतीत कालमें उक्त गुणस्थानवर्ती देवोंने स्पर्श न किया हो । इस प्रकार इस स्पर्श किये गये क्षेत्रको लोकनालीके चौदह भागोंमेंसे आठ भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहते है । मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा उक्त गुणस्थानवर्ती जीवोंने लोकनालीके चौदह भागों में से बारह भाग स्पर्श किये हैं । इसका अभिप्राय यह है कि छठी पृथिवीके सासादनगुणस्थानवर्ती नारकी मध्यलोक तक मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, और सासादनसम्यग्दृष्टि भवनवासी आदि देव आठवीं पृथिवीके ऊपर विद्यमान पृथिर्वाकायिक जीवोंमें मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, या करते हैं । इस प्रकार मेरुतलसे छठी पृथिवी तकके ५ राजु, और ऊपर लोकान्त तकके ७ राजु, दोनों मिलाकर १२ राजु हो जाते हैं । यही बारह घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्र्सनालीके बारह बटे चौदह (१) भाग, अथवा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे बारह भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहा जाता है ।
इस उक्त प्रकारसे बतालाए गए स्पर्शन क्षेत्रको यथासंभव जान लेना चाहिए। ध्यान रखने की बात केवल इतनी ही है कि वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, किन्तु अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे यथासंभव ४, १४, को आदि लेकर तक होता है । तथा मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिक, वेदना, कषायसमुद्धात आदिकी अपेक्षा सर्व लोक स्पर्शनक्षेत्र होता है, क्योंकि, सारे लोकमें सर्वत्र ही एकेन्द्रिय जीव ठसाठस भरे हुए हैं और गमनागमन कर रहे हैं, अतएव उनके द्वारा समस्त लोकाकाश वर्तमानमें भी स्पर्श हो रहा है और अतीतकाल में भी स्पर्श किया जा चुका है ।
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