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________________ ११२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १६४. णत्थि ? अप्पमाद-वाघादाणं सहअणवट्ठाणलक्खणविरोहा । सजोगिकेवलिस्स एगसमयपरूवणा कीरदे । तं जधा-एक्को खीणकसाओ मणजोगेण अच्छिदो मणजोगद्धाए एगो समओ अत्थि त्ति सजोगी जादो । एगसमयं मणजोगेण दिवो सजोगिकेवली विदियसमए वचिजोगी वा जादो । एवं चदुसु मणजोगेसु पंचसु वचिजोगेसु पुव्युत्तगुणट्ठाणाणं एगसमयपरूवणा कादव्वा । उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ १६४ ॥ तं जधा- मिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदो पमत्तसंजदो ( अप्पमत्तसंजदो) सजोगिकेवली वा अणप्पिदजोगे द्विदो अद्धाक्खएण अप्पिदजोगं गदो । तत्थ तप्पाओग्गुक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय अणप्पिदजोगं गदो । सासणसम्मादिट्ठी ओघं ।। १६५ ।। शंका-अप्रमत्तसंयतके व्याघात किस लिए नहीं है ? समाधान-क्योंकि, अप्रमाद और व्याघात, इन दोनोंका सहानवस्थानलक्षण बिरोध है। __ अब सयोगिकेवलीके एक समयकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार हैएक क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ जीव मनोयोगके साथ विद्यमान था। जब मनोयोगके काल में एक समय अवशिष्ट रहा, तब वह सयोगिकेवली हो गया और एक समय मनोयोगके साथ दृष्टिगोचर हुआ। वह सयोगिकेवली द्वितीय समयमें वचनयोगी हो गया। इस प्रकारसे चारों मनोयोगों में और पांचों वचनयोगों में पूर्वोक्त गुणस्थानोंकी एक समयसम्बन्धी प्ररूपणा करना चाहिए। उक्त पांचों मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगिकेवलीका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ १६४॥ जैसे- अविवक्षित योगमें विद्यमान मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, (अप्रमत्तसंयत) और सयोगिकेवली उस योगसम्बन्धी कालके क्षय हो जानेसे विवक्षित योगको प्राप्त हुए। वहां पर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्तकाल तक रह करके पुनः अविवक्षित योगको चले गये। __ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका काल ओषके समान है ॥ १६५ ॥ १ उत्कर्षेणान्तर्मुहर्तः । स. सि. १, ८. २ सासादमसम्यग्दृष्टेः सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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