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________________ १, ४, २८.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफासणपरूवणं संखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो । तं जहा-तिरिक्खेसु तिरिक्ख-देव-णेरइयसम्मादिट्ठिणो ण उप्पज्जति ति। कुदो? सहावादो। मणुसखइयसम्मादिट्टिणो चेव उप्पज्जति, पुव्वं मिच्छत्तसंसिदेहि बद्धतिरिक्खाउअत्तादो । ते वि भोगभूमीसु चेव उप्पज्जति, दाणादिसयलदसधम्मे विज्जमाणाणुमोदादो। तेण सयंपहपव्वदोवरिमभागो सव्वो चेव उववादपरिणदसम्मादिट्ठीहि पुसज्जदि त्ति तस्साणयणविधाण वुच्चदे- सयंपहपव्वदादो परभागो दोहि वि पासेहि रज्जुपंचट्ठभागो रज्जूए तप्पाओग्गा संखेज्जा भागा वा होति । तेसु रज्जुविक्खंभम्हि फेडिदेसु अवसेसा तिण्णि अट्ठभागा रज्जूए संखेज्जदिभागो वा होदि । एदेण विक्खंभायामेण हिदसम्मादिट्ठिउववादखेत्तं विक्खंभवग्गदसगुणकरणी वट्टस्स परिट्ठओ होदि । विक्खंभचउब्भागो परिठयगुणिदो हवे गणिदं ॥ ८॥ एदीए गाहाए पदरागारेण कदे जगपदरं अट्ठसत्तावण्णभागब्भहियचालीसोत्तरचदुहि सदेहि खंडिद-एयभागो सादिरेगो आगच्छदि, तप्पाओग्गसंखेज्जरूवेहि छिण्णेग लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। वह इस प्रकारसे है-तिर्यंचों में तिर्यंच, देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है। केवल क्षायिकसम्यग्दृष्टि मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, उन्होंने पूर्व में मिथ्यात्वसे संसिक्त परिणामोंके द्वारा तिर्यच आयुको बांध लिया है। सो वे भी जीव भोगभूमिके तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंकी दान आदि समस्त दश धर्मों में अनुमोदना विद्यमान रहती ही है। इसलिए स्वयंप्रभ पर्वतका उपरिम सर्व भाग उपपादपरिणत असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच जीवोंके द्वारा स्पर्श किया गया है, अतः उसके निकालनेके विधानको कहते हैं स्वयंप्रभ पर्वतसे परभागवर्ती क्षेत्र दोनों ही पाश्चोंसे राजुके पांच बटे आठ (४) भाग अथवा राजुके तत्प्रायोग्य संख्यात बहुभाग प्रमाण होता है । उन भागोंको राजुके विष्कम्भमेसे घटा देने पर तीन बटे आठ (1) भाग अवशेष क्षेत्र अथवा राजुका संख्यातयां भागप्रमाण होता है । इस विष्कम्भ और आयामसे स्थित सम्यग्दृष्टिके उपपादक्षेत्रको विष्कम्भका वर्गकर उसे दशसे गुणा करके उसका वर्गमूल निकाले, वही वृत्त अर्थात् गोलाकृति क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण हो जाता है। पुनः विष्कम्भके चतुर्भागसे परिधिको गुणा करने पर क्षेत्रफल हो जाता है ॥ ८॥ इस गाथासूत्रके अनुसार प्रतराकारसे करनेपर आठ बटे सत्तावन भागसे अधिक चार सौ चालीस (४४०५) भागोंसे खंडित सातिरेक एक भागप्रमाण जगप्रतर होता है। १ त्रि. सा. ९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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