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________________ ३८० छक्खंडागमे जीवहाण [ १, ५, ८७. . पुव्वुत्तजीवेहितो आगंतूण मणुसअपज्जत्तएसु उप्पण्णस्स अंतोमुहुत्तादो उर्वरिमकालवियप्पाणमुक्कस्साउहिदिअपज्जत्तस्स वि अणुवलंभा । देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ॥ ८७ ॥ देवमिच्छादिट्ठिविरहिदकालाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ ८८ ॥ असंजदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छादिहिस्स वा संकिलेसेण मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णकालमच्छिय पुव्युत्तदोगुणट्ठाणाणमण्णदरं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभा । उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि ॥ ८९ ॥ मणुसमिच्छादिहिस्स दव्वसंजमबलेण एक्कत्तीससागरोवमाउद्विदिदेवेसुप्पज्जिय मिच्छत्तेण सह अप्पणो आउट्ठिदिमणुपालिय मणुसेसुववण्णस्स एक्कत्तीससागरोवममेत्तदेवमिच्छांदिद्विकालदसणादो। क्योंकि, पूर्वोक्त जीवोंसे आकर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवके अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है, तथा अन्तर्मुहूर्तसे उपरिम कालके विकल्प उत्कृष्ट आयुस्थितिवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवके भी नहीं पाये जाते। देवगतिमें, देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ।। ८७॥ क्योंकि, देवों में मिथ्यादृष्टियोंसे रहित कोई काल नहीं पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८८॥ असंयतसम्यग्दृष्टिके, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवके, संक्लेशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होकर, वहां पर सर्व जघन्य काल रह कर पूर्वोक्त दो गुणस्थानों से किसी एकको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देवोंका उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है॥८९॥ मिथ्यादृष्टि मनुष्यके द्रव्यसंयमके बलसे इकतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वके साथ अपनी आयुस्थितिको अनुपालन करके मनुष्यों में उत्पन्न होनेवाले जीवके इकतीस सागरोपमप्रमाण देवों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका काल, देखा जाता है। १देवगतौ देवेषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्व काल: । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १. ८. ३ उत्कर्षेणैकत्रिंशत्सागरोवमाणि । स. सि. १,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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