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________________ ३५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, २२. चउण्हं उवसमा केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २२ ॥ तं कधं ? दो वा तिण्णि वा अणियट्टिउवसामगा सेढीदो ओदरमाणा एगसमयं जीविदमत्थि ति अपुरकरणउवसामगा जादा । एगसमयमपुधकरणेण सह दिट्ठा विदियसमए मदा देवा जादा । एवमपुवकरणस्स एगसमयपरूवणा कदा। अप्पमत्तमपुवकरणं करिय विदियसमए कालं कराविय अपुव्वकरणस्स एगसमयपरूवणा किण्ण कदेत्ति वुत्ते ण, अपुवकरणपढमसमयादो जाव णिद्दा-पयलाणं बंधो ण वोच्छिज्जदि ताव अपुव्वकरणाणं मरणाभावा । एवं चेव तिण्हमुवसामगाणमेगसमयपरूवणा जाणाजीचे अस्सिदूण कायया । णवरि अणियट्टि-सुहुमउवसामगाणं चढंत-ओदरंतजीवे अस्सिदूण दोहि पयारेहि एगसमयपरूवणा कादबा । उवसंतकसायस्स चढंतजीवे चेय अस्सिदूण एगसमयपरूवणा कादव्वा । उकस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ २३ ॥ चारों उपशामक जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होते हैं ॥ २२॥ वह इस प्रकार है- उपशमश्रेणीसे उतरनेवाले दो, अथवा तीन अनिवृत्तिकरण उप. शामक जीव एक समयमात्र जीवनके शेष रहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशामक हुए। तब एक समयमात्र अपूर्वकरणगुणस्थानके साथ दिखे । पुनः द्वितीय समयमें मरे, और देव हो गये । इस प्रकार अपूर्वकरण उपशामकके एक समयकी प्ररूपणा की। शंका-अप्रमत्तसंयतको अपूर्वकरणगुणस्थानमें ले जा करके और द्वितीय समयमें मरण कराके अपूर्वकरणगुणस्थानके एक समयकी प्ररूपणा क्यों नहीं की ? समाधान-इसलिए नहीं की, कि अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथम समयसे लेकर जब तक निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोंका बंध व्युच्छिन्न नहीं हो जाता है, तब तक अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती संयतोंका मरण नहीं होता है। __इसी प्रकार शेष तीन उपशामकोंके एक समयकी प्ररूपणा नाना जीवोंका आश्रय करके करना चाहिए। विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशामक जीवों के एक समयकी प्ररूपणा उपशमश्रेणी चढ़ते हुए और उतरते हुए जीवोंको आश्रय करके दोनों प्रकारोंसे करना चाहिए। किन्तु उपशान्तकषाय उपशामकके एक समयकी प्ररूपणा चढ़ते हुए जीवोंको ही आश्रय करके करना चाहिए। चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३ ॥ १ चतुर्णानुपशमकानां नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः । स. सि. १. ८. २ उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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