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________________ ३१८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, ५, १. नेनेति कालशब्दव्युत्पत्तेः । कालः समय अद्धा इत्येकोऽर्थः । समयादीणमत्थो बुच्चदेअणोरण्वंतरव्यतिक्रमकालः समयः । चोइसरज्जुआगास पदे सक्रमणमेत्तकालेण जो चोहसरज्जुकमणक्खमो परमाणू तस्स एगपरमाणुक्कमणकालो समओ णाम । असंखेज्जसम घेतू या आवलिया होदि । तप्पाओग्गसंखेज्जावलियाहि एगो उस्सासणिस्सासो होदि । सत्तहि उस्सा सेहि एगो थोवसण्णिदो कालो होदि । सतहि थोवेहि लवो णाम कालो होदि। साद्ध-अट्ठत्तीसलवेहि णाली णाम कालो होदि । वेहि गालियाहि मुहुत्तो होदि । उच्छ्वासानां सहस्राणि त्रीणि सप्त शतानि च । त्रिसप्ततिः पुनस्तेषां मुहूर्तो ह्येक इष्यते ( ३७७३) ॥ १० ॥ निमेषाणां सहस्राणि पंच भूयः शतं तथा । दश चैव निमेषाः स्युर्मुहूर्ते गणिताः बुधैः (५११० ) ॥ ११ ॥ त्रिंशन्मुहूर्ती दिवसः । मुहूर्तानां नामानि - रौद्रः श्वेतश्च मैत्रश्च ततः सारभटोऽपि च । दैत्यो वैरोचनश्चान्यो वैश्वदेवोऽभिजित्तथा ॥ १२ ॥ रोहणो बलनामा च विजयो नैऋतोऽपि च। वारुणश्चार्यमा च स्युर्भाग्यः पंचदशो दिने ( १५ ) ॥ १३ ॥ समाधान- नहीं, क्योंकि, 'जिसके द्वारा कर्म, भव, काय और आयुकी स्थितियां कल्पित या संख्यात की जाती हैं, अर्थात् कही जाती हैं, उसे काल कहते हैं ' इस प्रकार की काल शब्दकी व्युत्पत्ति है । काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम है । समय आदिका अर्थ कहते हैं । एक परमाणुका दूसरे परमाणुके व्यतिक्रम करनेमें जितना काल लगता है, उसे समय कहते हैं । अर्थात्, चौदह राजु आकाशप्रदेशोंके अतिक्रमणमात्र कालसे जो चौदह राजु अतिक्रमण करनेमें समर्थ परमाणु है, उसके एक परमाणु अतिक्रमण करनेके कालका नाम समय है । असंख्यात समयोंको ग्रहण करके एक आवली होती है । तत्प्रायोग्य संख्यात आवलियोंसे एक उश्वास-निःश्वास निष्पन्न होता है । सात उश्वासोंसे एक स्तोकसंशिक काल निष्पन्न होता है । सात स्तोकोंसे एक लव नामका काल निष्पन्न होता है । साढ़े अड़तीस लवोंसे एक नाली नामका काल निष्पन्न होता है । दो नालिकाओंसे एक मुहूर्त होता है। उन तीन हजार सात सौ तेहत्तर (३७७३) उच्छ्रासौका एक मुहूर्त कहा जाता है ॥ १० ॥ Jain Education International विद्वानोंने एक मुहूर्त में पांच हजार एक सौ दश (५११०) निमेष गिने हैं ॥ ११ ॥ तीस मुहूर्तीका एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है । मुहूर्तोंके नाम इस प्रकार हैं १ रौद्र, २ श्वेत, ३ मैत्र ४ सारभट, ५ दैत्य, ६ वैरोचन, ७ वैश्वदेव, ८ अभिजित्, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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