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१, ३, ४७.] खेत्ताणुगमे कसायमग्गणाखेत्तपरूवणं
[ ११३ णवरि पमत्ते तेजाहारपदं णत्थि ।
__ अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४५॥
___एदस्स अत्थो- चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे सत्थाणत्था अच्छंति । मारणंतियसमुग्घादगदा उवसामगा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति वुत्तं होदि ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ ४६॥ पुव्वं परूविदत्थमिदं सुत्तमिदि एत्थ एदस्स अत्थो ण वुच्चदे ।
एवं वेदमग्गणा समत्ता । कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥४७॥
चदुकसाइमिच्छाइट्ठिणो सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणतिय-उववादगदा ओघ
विशेष बात यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें नपुंसकवेदियोंके तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात, ये दो पद नहीं होते हैं।
अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४५ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानपदगत अपगतवेदी जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त उपशामक जीव सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहा गया है।
अपगतवेदी सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओघके समान है ॥ ४६॥
इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है, इसलिए यहां पर इसका अर्थ पुनः नहीं कहा जाता है।
इस प्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई। कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ॥४७॥
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद १४४ अपगतवेदानां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
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