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________________ ३२८ ) .. छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १. गहिदगहणद्धा मिस्सयगहणद्धा चेदि । अप्पिदपोग्गलपरियदृब्भंतरे जं अगहिदपोग्गलगहणकालो अगहिदगहणद्धा णाम । अप्पिदपोग्गलपरियभंतरे गहिदपोग्गलाणं चेय गहणकालो गहिदगहणद्धा णाम । अप्पिदपोग्गलपरियट्टमंतरे गहिदागहिदपोग्गलाणमक्कमेण गहणकालो मिस्सयगहणद्धा णाम । एवं तीहि पयारहि पोग्गलपरियट्टकालो जीवस्स गच्छदि । एत्थ तिण्हमद्धाणं परियट्टणकमो वुच्चदे । तं जहा-पोग्गलपरियट्टादिसमयप्पहुडि अणंतकालो अगहिदगहणद्धा भवदि, तत्थ सेसदोपयाराभावा । पुणो अगहिदगहणद्धावसाणे सई मिस्सयगहणद्धा होदि । पुणो वि विदियवारे अगहिदगहणद्धाए अणंतकालं गंतूण सई मिस्सयद्धा होदि । एवं तदियवारे वि अगहिदगहणद्धाए अणंतकालं गमिय सइं मिस्सयद्धाए परिणमदि । एदेण पयारेण मिस्सयद्धाओ वि अणंताओ जादाओ। पुणो णंतकालं अगहिदगहणद्धाए गमिय सई गहिदगहणद्धाए परिणमदि। एदेण कमेण अणतो कालो गच्छदि जाव गहिदगहणद्धसलागाओ वि अणंतत्तं पत्ताओ त्ति। पुणो उवरि और मिश्रग्रहणकाल । विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर जो अगृहीत पुद्गलोंके ग्रहण करनेका काल है उसे अगृहीतग्रहणकाल कहते हैं। विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर गृहीत पुद्गलोंके ही ग्रहण करनेके कालको गृहीतग्रहणकाल कहते हैं। तथा विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर गृहीत और अगृहीत, इन दोनों प्रकारके पुद्गलोंके अक्रमसे अर्थात् एक साथ ग्रहण करनेके कालको मिश्रग्रहणकाल कहते हैं । इस तरह उक्त तीनों प्रकारोसे जीवका पुद्गलपरिवर्तनकाल व्यतीत होता है। विशेषार्थ-जिन पुद्गलपरमाणुओंके समुदायरूप समयप्रबद्ध में केवल पहले ग्रहण किये हुए परमाणु ही हों, उस पुद्गलपुंजको गृहीत कहते हैं। जिस समयप्रबद्धमें ऐसे परमाणु हो कि जिनका जीवने पहिले कभी ग्रहण नहीं किया हो उस पुद्गलपुंजको अगृहात कहते हैं। जिस समयप्रबद्धमें दोनों प्रकारके परमाणु हों उस पुद्गलपुंजको मिश्र कहते हैं। अब यहांपर उक्त तीनों प्रकारके कालोंके परिवर्तनका क्रम कहते हैं । वह इस प्रकार है-- पुद्गल परिवर्तनके आदि समयसे लेकर अनन्तकाल तक अगृहीतग्रहणका काल होता है, क्योंकि, उसमें शेष दो प्रकारके कालोंका अभाव है । पुनः अगृहीतग्रहणकालके अन्तमें एक वार मिश्रपुद्गलपुंजके ग्रहण करनेका काल आता है। फिर भी द्वितीयवार अगृहीतग्रहणकालके द्वारा अनन्तकाल जाकर एकवार मिश्रपुद्गलपंजके ग्रहण करनेका काल आता है। इसी प्रकार तृतीयवार भी अग्रहीतग्रहणकालके द्वारा अनन्तकाल जाकर एक वार मिश्रग्रहणकालरूपसे परिणमन होता है। इस प्रकारसे मिश्रग्रहणकालकी भी शलाकाएं अनन्त हो जाती हैं । पुनः अनन्तकाल अगृहीतग्रहणकालके द्वारा बिता कर एकवार गृहीतग्रहणकालरूपसे परिणमन होता है। इस क्रमसे अनन्तकाल व्यतीत होता हुआ तब तक चला जाता है जब तक कि गृहीतग्रहणकाल की शलाकाएं भी १ प्रतिषु 'जंगहिद-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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