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________________ १, ५, ४.] कालाणुगमे मिच्छादिट्टिकालपरूवणं [३२७ परियट्टादिसमए अगहिदसण्णिदे चेव पोग्गले तिण्हमेक्कदरसरीरणिप्पायणट्ठमभवसिद्धिएहि अणंतगुणे सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ते गेण्हदि । ते च गेण्हतो अप्पणो ओगाढखेत्तट्ठिदे चेय गेहदि, णो पुध खेत्तट्ठिदे । वुत्तं च एयक्खेत्तोगाढं सव्वपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बंधइ जहुत्तहेदू सादियमध णादियं चावि ॥ १९॥ विदियसमए वि अप्पिदपोग्गलपरियभंतरे अगहिदे चेव गेहदि । एवमुक्कस्सेण अणंतकालमगहिदे चेव गेण्हदि । जहण्णेण दो-समएसु चेव अगहिदे गेण्हदि, पढमसमयगहिदपोग्गलाणं विदियसमए णिजरिय अकम्मभावं गदाणं पुगो तदियसमए तम्हि चेव जीवे णोकम्मपज्जाएण परिदाणमुवलंभादो । तं कधं णव्वदे ? णोकम्मस्स आवाधाए विणा उदयादिणिसेगुवदेसा । एसो पोग्गलपरियट्टकालो तिविहो होदि, अगहिदगहणद्धा अतएव पुद्गल परिवर्तनके आदि समयमें औदारिक आदि तीन शरीरों से किसी एक शरीरके निष्पादन करने के लिए जीव अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र अगृहीत संज्ञावाले पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। उन पुद्गलोंको ग्रहण करता हुआ भी अपने आश्रित क्षेत्रमें स्थित पुद्गलोको ही ग्रहण करता है, किन्तु पृथक् क्षेत्र में स्थित पुद्गलोंको नहीं ग्रहण करता है । कहा भी है यह जीव एक क्षेत्रमें अवगाढरूपसे स्थित, और कर्मरूप परिणमनके योग्य पुद्गलपरमाणुओंको यथोक्त (आगमोक्त मिथ्यात्व आदि) हेतुओंसे सर्व प्रदेशोंके द्वारा बांधता है। वे पुद्गलपरमाणु सादि भी होते हैं, अनादि भी होते हैं, और उभयरूप भी होते हैं ॥ १९ ॥ द्वितीय समयमें भी विवक्षित पुद्गलपरिवर्तनके भीतर अगृहीत पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। इस प्रकार उत्कृष्टकालकी अपेक्षा अनन्तकाल तक अगृहीत पुद्गलोंको ही ग्रहण करता है। किन्तु जघन्यकालकी अपेक्षा दो समयोंमें ही अगृहीत पुद्गलोंको ग्रहण करता है, क्योंकि, प्रथम समयमें ग्रहण किये गये पुद्गलोंकी द्वितीय समयमें निर्जरा करके अकर्मभाव (कर्मरहित अवस्था) को प्राप्त हुए वे ही पुद्गल पुनः तृतीय समयमें उसी ही जीवमें नोकर्म पर्यायसे परिणत हुए पाये जाते हैं। शंका-प्रथम समयमें गृहीत पुद्गलपुंज द्वितीय समयमें निर्जीर्ण हो, अकर्मरूप अवस्थाको धारण कर, पुनः तृतीय समयमें उसी ही जीवमें नोकर्मपर्यायसे परिणत हो जाता है, यह कैसे जाना? समाधान - क्योंकि, आबाधाकालके विना ही नोकर्मके उदय आदिके निषेकोंका उपदेश पाया जाता है। यह पुद्गल परिवर्तनकाल तीन प्रकारका होता है-अगृहीतग्रहणकाल, गृहीतग्रहणकाल १ प्रतिषु 'गुणो' इति पाठः। २ गो. क. १८५. परं तत्र 'जहुत्तहेदू' इति स्थाने 'सगहेदूहि य इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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