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________________ १, ४, १६ ] फोसणाणुगमे णेरड्यफोसणपरूवणं [ १८३ अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो। कुदो ? असंखेज्जजोयणविक्खंभणिरयावासखादफलं ठविय तप्पाओग्गसंखेजबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेजदिभागमेतखेत्तुवलंभादो । मारणंतिय-उववादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइजादो असंखेजगुणो फोसिदो। कधं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागतं ? वुच्चदे- असीदिसहस्साहियजोयणलक्खपढमपुढवीबाहल्लम्मि हेट्ठिमजोयणसहस्सं णेरइएहि सव्यकालं ण छुप्पदि त्ति कट्ट जोयगसहस्समवणिय सेसबाहल्लं रज्जुपदरं ठविय उस्सेधेण एगूणवंचासमेत्तखंडाणि कादण पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो होदि, ' एगरज्जुरुंदो सत्तरज्जुआयदो जोयणलक्ख. बाहल्लो तिरियलोगो' त्ति उवदेसादो । जे पुण जोयणलक्खबाहल्लरज्जुबट्ट तिरियलोगपमाणं भणंति तेसिमुवदेसेण तिरियलोगादो सादिरेयं मारणंतिय-उववादखेतं होदि । और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि असंख्यात योजन विष्कम्भवाले नारकावासोंके घनफलको स्थापित करके तत्प्रायोग्य संख्यात बिलशलाकाओंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र उपलब्ध होता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असं. ख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। शंका- यहांपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग कैसे कहा ? समाधान- एक लाख अस्सी हजार योजन प्रथम पृथिवीके बाहल्यमेंसे नीचेका एक हजार योजनप्रमाण क्षेत्र नारकियोंने किसी भी समय नहीं छुआ है, ऐसा करके उक्त प्रमाणमेंसे एक हजार योजन निकालकर शेष एक लाख उन्यासी हजार बाहल्यवाले राजुप्रतरको स्थापित करके उत्सेधके उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर का संख्यातवां भाग हो जाता है, क्योंकि, 'एक राजु रुंदवाला, सात राजु लम्बा और एक लाख योजन बाहल्यवाला तिर्यग्लोक है' ऐसा उपदेश है। किन्तु जो आचार्य एक लाख योजन बाहल्यवाला और एक राजु गोलाईवाला तिर्यग्लोकका प्रमाण कहते हैं, उनके उपदेशानुसार तिर्यग्लोकसे साधिक मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्र होता है। विशेषार्थ-- यहां पर प्रथम नरकके मिथ्यादृष्टि जीवोंका मारणान्तिक और उपपाद क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग इस प्रकार सिद्ध किया गया है-यदि हम तिर्यग्लोकके एक राजु लम्बे चौड़े व मोटाईके सप्तमांश प्रमाण मोटे खंड करें तो १४२८५५ योजन मोटाई. वाले ४९ खंड होते हैं। अब यदि एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी और एक राजु लम्बी चौड़ी प्रथम पृथ्वीके प्रमाणमेंसे नारकियोंसे सदैव अस्पृष्ट एक हजार योजन मोटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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