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________________ १६६ (३८) षट्खंडागमको प्रस्तावना कम नं. विषय पृ. नं. क्रम नं. विषय पृ.नं. स्पर्शनक्षेत्र देशोन दश बटे मिथ्यादृष्टियोंका स्पर्शनक्षेत्र चौदह भागप्रमाण कहते हैं, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग उनके कथनका सप्रमाण विरोध प्रमाण क्यों नहीं, इस शंकाका निरूपण तथा इसीके अन्तर्गत और भी २४ सम्यग्मिध्यादृष्टि और असंयत अनेको शंकाओंका समाधान । १७४ सम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमान ३१ विग्रहगतिमें जीवोंके विग्रह और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र सहेतुक होते हैं, या अहेतुक, २५ संयतासंयत जीवोंका वर्तमान इस बातका निर्णय करते हुए __ और अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १६७-१६८ नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव२६ स्वयम्भूरमणसमुद्र और स्वय गति प्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी म्भपर्वतके परभागवर्ती क्षेत्रका प्रकृतियोंके भेदोंका निरूपण और उनके क्षेत्र-विपाकित्वकी विष्कम्भ बतलाते हुए संयता सिद्धि १७५-१७६ संयत जीवोंके स्वस्थानक्षेत्रकी .३२ सासादनसम्यग्दृष्टिनारकियोंका सप्रमाण सिद्धि . १६८-१६९/ वर्तमान और अतीतकालिक २७ प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर स्पर्शनक्षेत्र अयोगिकेवली गुणस्थान तकके ३३ नारकावासोंके आकारोंका,तथा जीबोका स्पर्शनक्षेत्र, तथा वर्तमानकालमें नारकियोंसे विक्रियादि ऋद्धिसम्पन्न ऋषि रोके हुए क्षेत्रका वर्णन योंने सर्व मनुष्यक्षेत्रका स्पर्श ३४ सम्यग्मियादृष्टि और असंयतकिया है, या नहीं, क्या मेरु सम्यग्दृष्टि नारकियोका स्पर्शनशिखर तक जाने आनेवाले ऋषि क्षेत्र बतलाते हुए एक नारकामनुष्यक्षेत्र में सर्वत्र नहीं जा आ वासका क्षेत्रफल, तथा मारणासकते; क्या तिर्यंचोंका भी एक न्तिक समुद्धातगत असंयतलाख योजन ऊपर तक जाना सम्यग्दृष्टि नारकियोंका स्पर्शनसम्भव नहीं है, इत्यादि अनेक क्षेत्र मनुष्यलोकसे असंख्यातशंकाओंका समाधान १७०-१७२ गुणा क्यों है, इस बातका २८ सयोगिकेवलीका स्पर्शनक्षेत्र अनेक युक्तियों के साथ समर्थन १७२-१८२ ३५ प्रथम पृथिवीके मिथ्यादृष्टि आदि आदेशसे स्पर्शनक्षेत्र-निर्देश १७३-३०९ चारों गुणस्थानवर्ती स्वस्थानादि पदगत नारकियोंके स्पर्शन१ गतिमार्गणा ,, -२४० क्षेत्रकी सयुक्तिक सिद्धि करते (नरकगति) , -१९२ हुए प्रसंगागत मृदंगाकार लोकके २९ नारकी मिथ्याइष्ठि जीवोंका अनुसार एक लाख योजन वर्तमान और अतीतकालिक बाहल्य और एक राजु गोल स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकके प्रमाणका,जगश्रेणी ३० मतीतकालकी अपेक्षा विहारव जगप्रतर, घनलोकका परिकर्मके स्वस्थानादि पदगत नारकी अवतरण पूर्वक स्वरूप-निरूपण " १७F Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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