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क्रम नं.
विषय
स्पर्शन और भावस्पर्शन, इन छह प्रकारके स्पर्शनोंका सभेद स्वरूप और नयों में अन्तर्भाव ४ स्पर्शनशब्द की निक्ति, ओघशब्दके एकार्थक नाम और प्रमाणवाक्य के अभावकी आशंकाका समाधान
६ स्पर्शनानुयोगद्वार के अवतारकी आवश्यकताका प्रतिपादन ७ लोकका प्रमाण-निरूपण ८ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र ९ सासादन सम्यग्दृष्टि अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र १० सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्येचोंका स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्र
जीवोंका
११ सासादन सम्यग्दृष्टि ज्योतिष्क देवोंका स्वस्थानक्षेत्र
क्षेत्रानुगम-विषय-सूची
पृ. नं. क्रम नं.
२
ओघसे स्पर्शनानुगमनिर्देश १४५ - १७३
५ मिथ्यादृष्टि जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र निरूपण
१२ एक चन्द्रके परिवारका प्रमाण १३ ज्योतिष्कदेवोंके सर्व विमानों का
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१४१-१४४
१४४-१४५
प्रमाण
१४ स्वयम्भूरमण समुद्र के परभागमें राजु अर्धच्छेदों के अस्तित्वकी सिद्धि तथा परिकर्मसूत्र के साथ उसका विरोध उद्भावन कर उसका परिहार १५ राजु अर्धच्छेद सर्व द्वीपसागरों के प्रमाणसे तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक हैं, यह कथन केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्र के अनुसार है, यह बतलाते हुए असंख्यात आवलियोंके अवहारकालके तथा आयतच तुरस्र लोकसंस्थान के उपदेशका उल्लेख और
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व्यन्तर
१४५ | १८ सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका स्वस्थानक्षेत्र-निरूपण १४५ - १४६ १९ सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एके१४६-१४७ न्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, या केवल मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं, इस बातका सप्रमाण निर्णय १४९-१६५ | २० जबकि सासादन लम्यग्दृष्टि देव एकेन्द्रियों में मारणान्तिकसमुद्धात करते हैं, तो फिर सर्वलोकवर्ती एकेन्द्रियोंमें क्यों नहीं करते, इस शंकाका सयुक्तिक
समाधान
१४९
१५०-१६०
१५१-१५२
विषय
स्वकीय निष्पक्ष मनोवृत्तिका परिचय
१५२
१६ चन्द्रबिम्बशलाकाओं की उत्पत्ति १७ ज्योतिषी देवोंके विमानोंका प्रमाण उत्सेधांगुलसे ही लेना चाहिये, प्रमाणांगुलसे नहीं, अन्यथा जम्बूद्वीप-सम्बन्धी तारे जम्बूद्वीप में समा नहीं सकते, इस बातका पक्षान्तर स्वीकार के साथ उल्लेख
| २१ सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन क्षेत्र कैसे घटित होता है, वे वायुकायिक जीव में मारणान्तिकसमुद्धात क्यों नहीं करते, इन शंकाओंका समाधान
१५५-१५६ २२ उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के देशोन ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन क्षेत्रकी सिद्धि
| २३ जिन आचार्योंका यह अभिमत है कि देव नियमसे मूलशरीर में प्रविष्ट होकर ही मरण करते हैं, और इसी अपेक्षा उपपाद्गत सासादन सम्यग्दृष्टि देवोंका
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प्र. नं.
१५७ - १५८ १५९
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