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________________ १८९-१०.०७ स्वयपण : मिथ्या स्पर्शनानुगम-विषय-सूची क्रम नं. विषय पृ.नं. क्रम नं. विषय करते हुए अनेक युक्तियों और कार शलाकाओंका निरूपण प्रमाणोंसे खंडन १८२-१८७| और उनसे विवक्षित द्वीप और ३६ द्वितीय पृथिवीसे लेकर छठी समुद्रके क्षेत्रफल निकालनेका पृथिवी तकके मिथ्यादृष्टि और विधान सासादनसम्यग्दृष्टिनारकियोका ४५ स्वयम्भूरमण समुद्रके क्षेत्रफल वर्तमान और अतीतकालिक निकालनेका विधान स्पर्शनक्षेत्र १८८-१८९ ४६ सर्व समुद्रोंके क्षेत्रफलका संक३७ उक्त पृथिवियोंके सम्याग्मथ्या लन-निरूपण १९९-२०१ दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ४७ स्वयम्भूरमण समुद्रके अतिनारकियोंका स्पर्शनक्षेत्र रिक्त शेष सर्व समद्रोके क्षेत्र ३८ सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टि फलको निकालनेका विधान २०२-२०३ नारकियोंका वर्तमान और ४८ सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच मेरु. अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र तथा मूलसे नीचे मारणान्तिकसमुदेशोन क्षेत्रका स्पष्टीकरण १९०-१९१ द्धात क्यों नहीं करते हैं. उनकी ३९ सातवीं पृथिवीके सासादन भवनवासी देवों में उत्पत्ति होती सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि है, कि नहीं; इत्यादि अनेक और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकि शंकाओंका समाधान २०४-२०६ योंका स्पर्शनक्षेत्र १९१-१९२/४९ सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यचौका (तियेचगति) १९२-२.१६ स्पर्शनक्षेत्र ४० तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंका ५० असंयतसम्यग्दृष्टि और संयता संयत तिर्यचोंका वर्तमान और स्पर्शनक्षेत्र, तथा त्रसजीवरहित अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र २०७-२११ असंख्यात द्वीप और समुद्रों में ५१ नवग्रैवेयकोंमें यदि मिथ्याष्टि विहारवत्स्वस्थान पदपरिणत मनुष्य उत्पन्न होते हैं तो असं. तिर्यंचोंका होना कैसे संभव है, यतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इस शंकाका समाधान करते तिर्यचोंकी उत्पत्ति क्यों नहीं हुए अतीतकाल में विहार कर होना चाहिये ? यदि कहा जाय नेवाले तिर्यंचोंसे स्पर्श किये कि मिथ्याष्टि मनुष्य द्रव्यगये क्षेत्रके निकालनेका लिंगसे उत्पन्न होते हैं, तो ये विधान १९२-१९३ भी द्रव्यलिंगसे ही उत्पन्न होवे! ४१ सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका इस शंकाका समाधान २०८ वर्तमान और अतीतकालिक ५२ उपपादपरिणत असंयतसम्यस्पर्शनक्षेत्र १९३-२०६] ग्हष्टि तिर्यंचोंके स्पर्शनक्षेत्रके ४२ जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल करणसूत्र द्वारा निकालनेका ४३ लघणसमुद्रका क्षेत्रफल विधान २०९-१० ४४ धातकीखंड आदि द्वीपों और ५३ विहारवत्स्वस्थानादि पदपरिकालोदक आदि समुद्रोंके क्षेत्र णत संयतासंयत तिर्यंचोंका फलके निकालनेके लिए गुण स्पर्शनक्षेत्र २१००२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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