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________________ १, ३, ३९. ] खेत्तागमे जोगमग्गणाखेत्तपरूवणं [ १०९ असंखेज्जगुणे, पहाणीकय जोइसियरासित्तादो । मारणंतिय समुग्धादगंदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर - तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टिय दट्ठव्वं । सासणादिपरूवणा ओघपरूवणाए तुल्ला, णवरि सव्वत्थ उववादो णत्थि । वेडव्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्टी केवsि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३८ ॥ एदस्सत्थो - वेउव्जियमिस्सकायजोगी मिच्छादिट्ठी सत्याण- वेदण कसायसमुग्वादगदा तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे | सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी सत्याण- वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । आहारकायजोगी आहारमिस्स कायजोगीनु पमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३९ ॥ असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिककाययोग के प्रकरणमें ज्योतिष्क देवराशिकी प्रधानता है । मारणान्तिकसमुद्वातगत वैक्रियिककाययोगी मिध्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें और नरलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकों से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहांपर अपवर्तना स्वयं जान लेना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवर्ती वैक्रियिककाययोगी जीवोंके स्वस्थानादि पदोंकी क्षेत्रप्ररूपणा ओघक्षेत्र प्ररूपणा के तुल्य है । विशेषता केवल यह है कि इन सभी गुणस्थानों में उपपादपद नहीं होता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमे मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यगुणस्थानवर्ती व कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ३८ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्घातगत वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धतिगत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। आहारकाययोगियोंमें और आहारमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ! लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। ३९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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