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________________ १, ३, ४. ] खेत्तागमे सयोगिकेवलिखेत्तपरूवणं [ ४९ भागे हिदे तेसिं लोगाणमसंखेज्जदिभागो आगच्छदि । माणुसलोगेण भागे हिदे असंखेज्जाणि माणुसखेत्ताणि आगच्छंति । णवरि पलियंकेण दंडस मुग्धादगद केवलिस्स विक्खंभो पुव्वविक्खभादो तिगुणो होदि । तस्स पमाणमेदं ३६ । एदस्स परिओ तेरहुत्तरसदंगुलाणि सत्तावीस-तेरहुत्तरसदभागा ११३३ । सेसं पुत्रं व । कवाड दो केवली वडि खेत्ते, तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, (तिरियलोगस्स संखेजदिभागे) अड्डाइजादो असंखेञ्जगुणे । एत्थ कवाड गदकेवलिस्स खेत्ताणयणविहाणं बुच्चदे विशेषार्थ – यहां पर दंडसमुद्धात क्षेत्रका प्रमाण केवलीकी उत्कृष्ट अवगाहना १०८ प्रमाणांगुल लेकर बतलाया है । किन्तु इससे पूर्व ही केवली की उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष प्रमाण कही गई है । चूंकि उत्सेधांगुलसे प्रमाणांगुल ५०० गुणा होता है, इसलिए ५२५ १०० होते हैं । वर्तमान प्रकरण में विदेहक्षेत्रकी ४ ५२५x९६ ५०० धनुष के प्रमाणांगुल संयतराशि प्रधान है । अतएव यदि विदेहसम्बन्धी अवगाहना ली जाय, तो वह १०८ + ५०० = ९६ प्रमाणांगुल ही होती है । १०८ प्रमाणांगुलके धनुष ५६२ १ होते हैं जो उक्त ५२५ धनुष के प्रमाणसे बढ़ जाते हैं। इस वैषम्यका कारण विचारणीय है । ५००x९६ ५०० ९६ एक साथ समुद्धात करनेवाले संख्यात केवलियोंके दंडक्षेत्रका प्रमाण लाने के लिये इसे संख्यात से गुणित करे । इसप्रकार जो क्षेत्र उत्पन्न हो उसे त्रैराशिक के क्रमसे सामान्यलोक आदि चार लोकोंसे भाजित करनेपर उन चार लोकों में से प्रत्येक लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण दंडक्षेत्र आता है । तथा उक्त दंडक्षेत्रको मानुषलोकसे भाजित करने पर असंख्यात मानुषक्षेत्र लब्ध आते हैं । इतनी विशेषता है कि पल्यंकासन से दंडसमुद्घातको प्राप्त हुए केवलीका विष्कंभ पहले कहे हुए बारह अंगुलप्रमाण विष्कंभसे तिगुना होता है । उसका प्रमाण ३६ अंगुल है । इसकी परिधि एकसौ तेरह अंगुल और एक अंगुलके एकलौ तेरह भागोंमेंसे सत्ताईस भागप्रमाण ११३ है । उदाहरण - व्यास ३६, अतएव गाथा नं. १४ के अनुसार परिधिका प्रमाण ३६ × १६ + १६ १०८ ११३ + = ११३ १ शेष कथन पूर्वके समान है । कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीप से संख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । अब यहांपर कपाटसमुद्धातको प्राप्त हुए केवलीका क्षेत्र लानेका विधान कहते है Jain Education International = ५ २७ ११३ For Private & Personal Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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