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________________ १, ३, २. ] खेत्ताणुगमे लोगपमाणपरूवणं इदि एत्थ वुत्त लोगग्गहणादो । जदि एसो लोगो घेप्पदि, तो पंचदव्वाहारआगासस्स गणं ण पावदे । कुदो ? तम्हि सत्तरज्जुघणपमाणमेत्तखेत्तस्साभावा' । भावे वा - हेट्ठा मज्झे उवरिं वेत्तासण-झल्लरी- मुइंगणिहो । मज्झिमवित्थारेण य चोदसगुणमायदो लोगों ॥ ६ ॥ लोगो अकट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो । जीवाजीवेहि फुडो णिच्चो तलरुक्खसंठाणो ॥ ७ ॥ लोयस्य विक्खंभो चउप्पयारो य होइ णायव्वो । सत्तेक्कगो य पंचेक्कगो य रज्जू मुणेयव्त्रा ॥ ८ ॥ इस गाथामें जो लोकका ग्रहण किया गया है उससे जाना जाता है कि यहांपर सात राजुके घनप्रमाण लोकका ग्रहण अभीष्ट है । विशेषार्थ - एक प्रदेशवाली सात राजु लम्बी आकाश-प्रदेशपंक्तिको जगश्रेणी क हैं | तथा जगश्रेणी के वर्गको जगप्रतर और घनको घनलोक कहते हैं । गाथा में इसी क्रम से जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक पदका ग्रहण किया है । इससे यह ज्ञात होता है कि यहांपर लोकसे घनलोकका अभिप्राय है । शंका – यदि यहां पर इसी घनलोकका ग्रहण किया जाता है, तो पांच द्रव्यों के आधारभूत आकाशका ग्रहण नहीं प्राप्त होता है; क्योंकि, उस लोक में सात राजुके घनप्रमाणवाले क्षेत्रका अभाव है । और, यदि सद्भाव माना जावे तो नीचे वेत्रासन (बेंतके मूंढा) के समान, मध्य में झल्लरीके समान, और ऊपर मृदंगके समान आकारवाला तथा मध्यमविस्तार से अर्थात् एक राजुले चौदह गुणा आयत (लम्बा ) लोक है ॥ ६ ॥ यह लोक निश्चयतः अकृत्रिम है, अनादि-निधन है, स्वभावसे निर्मित है, जीव और अजीव द्रव्योंसे व्याप्त है, नित्य है, तथा तालवृक्ष के आकारवाला है ॥ ७ ॥ लोकका विष्कम्भ (विस्तार) चार प्रकारका है, ऐसा जानना चाहिये। जिसमेंसे अधोलोकके अन्त में सात राजु, मध्यमलोकके पास एक राजु, ब्रह्मलोक के पास पांच राजु और ऊर्ध्वलोक के अन्त में एक राजु विस्तार जानना चाहिये ॥ ८ ॥ [ ११ कृता सूच्यं गुलमित्युच्यते । तदवापरण सूच्यंगुलेन गुणितं प्रतर गुलं । तत्वतरांगुलमपरेण सूच्यंगुलेनाभ्यस्तं घनगुलं । असंख्येयानां वर्षाणां यावंतः समयास्तावत्खंडमद्धापल्यं कृतं, ततोऽसंख्येयान् खंडानपनीयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकेकस्मिन् घनांगुलं दत्वा परस्परेण गुणिता जगच्छ्रेणी । सा अपरया जगच्छ्रेण्याम्यस्ता प्रतरलोकः । स एवापरया जगच्छ्रेण्या संवर्गितो घनलोकः । त. रा. वा. ३, ३०. १ प्रतिषु ' खेत्तरसभावा' इति पाठः । २ जंबू. प. ११, ३ त्रि. सा. ४ तत्र चतुर्थचरणे 'सम्बागासावयवो णिच्चो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only १०६. ४ जंबू.प. ११, १०७. www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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