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२४४ छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, ४, ५०. तिरिक्खअपज्जत्ताणं जधा कारण उत्तं, तधा एत्थ वि पुध पुध विगलिंदियअपज्जत्ताणं वत्तव्यं ।
___पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसुमिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागों॥६०॥
एदस्स सुत्तस्स परूवणा खेत्तपंचिंदियदुगपरूवणाए तुल्ला, उभयत्थ वट्टमाणकालावलंबणं पडि साधम्मादो।
अट्ठ चोदसभागा देसूणा, सबलोगो वा ॥ ६१ ॥ .. दुविधपंचिंदियमिच्छादिट्ठीहि सत्थाणपरिणदेहि तिण्डं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो। एत्थ पुव्वं व जोदिसियबेंतरावासरुद्धखेत्तं अदीदकाले पंचिंदियतिरिक्खेहि सत्थाणीकयखेत्तं च घेत्तूण तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो दरिसेदव्यो । एसो 'वा' सद्दसूचिदत्थो । विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउवियपरिणदेहि अट्ट चोदसभागा पोसिदा, मेरुमूलादो उवरि छ, हेट्ठा दो रज्जु
बतलाते समय जिस प्रकार ( उक्त क्षेत्र होने का जो) कारण कहा है, उसी प्रकारसे यहांपर भी पृथक् पृथक् द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका क्षेत्र बतलाते हुए उसी कारणको कहना चाहिए ।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्तों में मिध्यादृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ६० ॥
इस सूत्रकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त, इन दोनोंकी क्षेत्रप्ररूपणाके समान है, क्योंकि, दोनों ही स्थानोंपर वर्तमानकालके अवलम्बनके प्रति समानता है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागत कालकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ६१ ॥
., स्वस्थानस्वस्थानपदपरिणत पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त, इन दोनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय मिथ्यावष्टि जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहांपर पूर्वके समान ही ज्योतिष्क और व्यन्तर देवोंके आवासेंसे रुद्व क्षेत्रको तथा अतीतकाल में पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके द्वारा स्वस्थानीकृत अर्थात् स्वस्थानस्वस्थानरूपसे परिणत क्षेत्रको लेकर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग दिखाना चाहिए। यह 'वा' शब्दसे सूचित अर्थ है। बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातपरिणत उक्त दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीवोंने आठ बटे चौदह (४) भाग स्पर्श किये हैं, क्योंकि, मेरुपर्वतके मूलभागसे ऊपर छह राजु और नीचे दो राजु, इस प्रकार आठ राजु क्षेत्रके भीतर सर्वत्र पूर्वपदपरिणत
१५न्द्रियेषु मिथ्या मिलोफरयासंख्येयभागः अष्टौ चतुर्दशभागा या देशोम।। सर्वलोको वा। स.सि.१॥
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