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________________ १, ४, ६३. ] फोसणाणुगमे पंचिदियौ सण परूवणं [ २४५ खेत्त मंतरे सव्वत्थ पुव्वपदपरिणद दुविह पंचिंदियाणमुवलंभा । मारणंतिय उववादपरिणदेहि सबलोगो पोसिदो, विवक्खिदादीद कालत्तादो । सासणसम्मादिट्टि पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ६२ ॥ एदेसिं गुणट्ठाणाणं वट्टमाणकालविसिखेत्तपरूवणा एदेसिं चेव खेत्ताणिओगद्दारोघम्हि उत्तपरूवणाए तुल्ला । कुद्रो ? सासणप्पहुडि जाव संजदासंजदो त्ति सव्वपदाणं चदुन्हं लोगाणमसंखेज दिमागत्तेण, माणुसखेत्तादो असंखेजगुणत्तेण च एदेसिं चेव खेत्ताणिओगद्दारउत्तपदेहि साधम्मुवलंभादो । सगुणड्डाणाणं पि सव्वपदेहि सरिसत्तदंस णादो च । अदीदकालमस्सिदूण परूवणं कीरमाणे वि णत्थि भेदो, पंचिदियवदिरित्तगुणपडिवण्णाणमभावा । सजोगि केवल ओघं ॥ ६३ ॥ एत्थ वितिविधं कालमस्सिदूण ओघपरूवणा चैत्र कादव्या, उभयत्थ पंचिदियत्तं पडि भेदाभावा । दोनों प्रकारके पंचेन्द्रिय जीव पाये जाते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदपरिणत उक्त दोनों प्रकारके जीवोंने सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, अतीतकालकी यहां पर विवक्षा की गई है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंका स्पर्शऩक्षेत्र ओघ के समान है ॥ ६२ ॥ इन गुणस्थानोंकी वर्तमानकालविशिष्ट स्पर्शन की प्ररूपणा, इन्हीं जीवोंके क्षेत्रानुयोगद्वारके ओघ में कही गई क्षेत्रप्ररूपणा तुल्य है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक सर्व पदका स्पर्शन सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागसे और मानुषक्षेत्रले असंख्यातगुणे क्षेत्रले इन्हीं पूर्वोक्त जीवोंके क्षेत्रानुयोगद्वार में कहे गये पदों के साथ साधर्म्य पाया जाता है; तथा प्रमत्तसंयतादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवों के भी सर्वपदोंके साथ सदृशता देखी जाती है । अतीतकालका आश्रय लेकरके स्पर्शनप्ररूपणा के करने पर भी कोई भेद नहीं है, क्योंकि, पंचेन्द्रिय जीवोंको छोड़कर गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवोंका अभाव है । सयोगिकेवली जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र ओघ के समान है ॥ ६३ ॥ यहां पर भी तीनों कालोंको आश्रय लेकर ओघ स्पर्शनप्ररूपणा ही करना चाहिए, क्योंकि, दोनों ही स्थानों पर पंचेन्द्रियता के प्रति भेदका अभाव है । १ शेषाणा सामान्योक्तं स्पर्शनम् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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