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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ५, १७५. कुदो ? सव्बद्धासु कायजोगिमिच्छादिट्ठीणं विरहाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमयं ॥ १७५ ॥ तं जधा- एगो सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी संजदासंजदो पमत्तसंजदो वा कायजोगद्धाए अच्छिदो । तिस्से एगसमयावसेसे मिच्छादिट्ठी जादो । कायजोगेण एगसमयं मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए अण्णजोगं गदो । अधवा मणवचिजोगेसु अच्छिदस्स मिच्छादिहिस्स तेसिमद्धाक्खएण कायजोगो आगदो । एगसमयं कायजोगेण सह मिच्छत्तं दिटुं । विदियसमए सम्मामिच्छत्तं वा असंजमेण सह सम्मत्तं वा संजमासंजमं अप्पमत्तभावेण संजमं वा पडिवण्णो। लद्धो एगसमओ। एत्थ मरण-वाघादेहि एगसमओं णत्थि । कुदो ? मुदे वाघादिदे वि कायजोगं मोत्तूण अण्णजोगाभावा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरिय, ॥१७६ ॥ तं जधा--एगो मिच्छादिट्ठी मण-वचिजोगेसु अच्छिदो अद्धाखएण कायजोगी क्योंकि, सभी कालोंमें काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंके विरहका अभाव है। एक जीवकी अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य काल एक समय है ॥ १७५ ॥ जैसे-एक सासादनसम्यग्दृष्टि, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि, अथवा संयतासंयत, अथवा प्रमत्तसंयत जीव काययोगके कालमें विद्यमान था। उस योगके काल में एक समय अवशेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गया । तब काययोगके साथ एक समय मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें वह अन्य योगको चला गया। अथवा, मनोयोग और वचनयोगमें विद्यमान मिथ्यादृष्टि जीवके उन योगोंके कालक्षयसे काययोग आ गया। तब एक समय काययोगके साथ मिथ्यात्व दृष्टिगोचर हुआ। पुनः द्वितीय समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको, अथवा असंयमके साथ सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको, अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। इस प्रकार एक समय लब्ध हो गया। यहां पर मरण अथवा व्याघातकी अपेक्षा एक समय नहीं है, क्योंकि, मरण होने पर अथवा व्याघात होने पर भी काययागका छाड़कर अन्य यागका अभाव है। ____एक जीवकी अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ १७६ ॥ जैसे-- मनोयोग अथवा वचनयोगमें विद्यमान एक मिथ्यादृष्टि जीव, उस योगके १ एक जीवं प्रति जघन्येनैकः समयः । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु · सगसमओ' इति पाठः। ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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