________________
११६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ३, ४९. एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादपदं णत्थि । सेसगुणहाणाणि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । णवरि मारणंतियसमुग्घादगदा माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे होति ।
लोभकसायविसेस पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
णवरि विसेसो, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥४९॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो।। अकसाईसु चदुट्टाणमोघं ॥५०॥
एत्थ हाणसदो गुणट्ठाणवाचगो, 'अवयवेषु प्रवृत्ताः शब्दाः समुदायेषपि वर्तन्ते' इति न्यायात् । यथा सत्यभामा भामा, बलदेवो देवः, भीमसेनः सेन इति । कधमुवसंत.
इसीप्रकारसे चारों कषायवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि यहांपर मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, ये दो पद नहीं होते हैं। इसी प्रकार चारों कषायवाले संयतासंयतोंका क्षेत्र होता है । विशेषता यह है कि इनके उपपाद पद नहीं है। शेष गुणस्थानवी चारों कषायवाले जीव सामान्यलोक आदि चार असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेषता यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत चारों कषायवाले संयत जीव मानुषक्षेत्रले असंख्यातगुणे क्षेत्रमें
अब लोभकषायकी विशेषता बतलानेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
विशेष बात यह है कि लोभकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥४९॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम है।
अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानोंका क्षेत्र ओघ-क्षेत्रके समान है ॥५०॥
यहांपर 'स्थान' शब्द गुणस्थानका वाचक है, क्योंकि, 'अवयवों में प्रवृत्त हुए शब्द समुदायों में भी रहते हैं' ऐसा न्याय है। जैसे 'भामा' कहनेसे सत्यभामा, 'देव' कहनेसे बलदेव और 'सेन' कहनेसे भीमसेनका ज्ञान होता है, इसी प्रकार यहां भी 'स्थान' शब्दसे गुणस्थानका बोध होता है।
शंका-जहां कषायोंका उपशमन ही है, ऐसे उपशान्तकषाय गुणस्थानको अक
१xx सूक्ष्मसाम्परायाणां सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८. २xx अकषायाणां च सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org