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१, ५, २८५.] कालाणुगमे किण्ह-णील-काउलेस्सियकालपरूवणं कालो किण्ण लब्भदे ? ण, जोग-कसायाणं व लेस्साए तिस्सा परावत्तीए गुणपरावत्तीए मरणेण वाघादेण वा एगसमयकालस्सासंभवा । ण ताव लेस्सापरावत्तीए एगसमओ लब्भदि, अप्पिदलेस्साए परिणमिदविदियसमए तिस्से विणासाभावा, गुणंतरं गदस्स विदियसमए लेस्संतरगमणाभावादो च । ण गुणपरावत्तीए, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए गुणंतरगमणाभावा । ण च वाघादेण, तिस्से वाघादाभावा। ण च मरणेण, अप्पिदलेस्साए परिणदविदियसमए मरणाभावा ।
उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस सत्त सागरोवमाणि सादिरयाणि ॥ २८५॥
एदेसिमुदाहरणाणि । तं जधा- णीललेस्पाए अच्छिदस्स किण्हलेस्सा आगदा । तत्थ सव्वुक्कस्समतोमुहुत्तमच्छिय अधो सत्तमीए पुढवीए उववण्णो । तत्थ तेत्तीसं सागरोवमाणि गमिय उवट्टिदो । पच्छा वि अंतोमुहुत्तकालं भावणवसेण सा चेव लेस्सा होदि । एवं दोहि अंतोमुहुत्तेहि सादिरेयाणि तेत्तीस सागरोवमाणि किण्हलेस्साए उक्कस्सकालो होदि ।
पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, योग और कषायोंके समान लेश्यामें लेश्याका परिवर्तन, अथवा गुणस्थानका परिवर्तन, अथवा मरण और व्याघातसे एक समय कालका पाया जाना असंभव है । इसका कारण यह है कि न तो लेश्यापरिवर्तनके द्वारा एक समय पाया जाता है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें उस लेश्याके विनाशका अभाव है। तथा इसी प्रकारसे अन्य गुणस्थानको गये हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य लेश्यामें जानेका भी अभाव है । न गुणस्थानपरिवर्तनकी अपेक्षा एक समय संभव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें अन्य गुणस्थानके गमनका अभाव है । न व्याघातकी अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, वर्तमानलेश्याके व्याघातका अभाव है। और न मरणकी अपेक्षा ही एक समय संभव है, क्योंकि, विवक्षित लेश्यासे परिणत हुए जीवके द्वितीय समयमें मरणका अभाव है।
उक्त तीनों अशुभ लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागरोपम, साधिक सत्तरह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम प्रमाण है ॥ २८५॥
इनके उदाहरण इस प्रकार हैं-- नीललेश्यामें विद्यमान किसी जीवके कृष्णलेश्या आगई । उसमें वह सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रह करके मरण कर नीचे सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ। वहां वह तेतीस सागरोपम काल बिताकर निकला। सो पीछे भी अन्तर्मुहूर्त काल तक भावनाके वशसे वही ही लेश्या होती है। इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्तोंसे अधिक तेतीस सागरोपम कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल होता है।
१ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सप्तदशसप्तसागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८.
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