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________________ ७२ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ३, ९. पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि त्ति तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे अच्छंतिि सिद्धं । तिरिय-णर लोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । एवं पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त- जोणिणीणं वत्तच्वं । उववादगदपंचिदियतिरिवखमिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । एत्थ उववाद खेत्तमाणिज्जमाणे मारणंतियभंगो । णवरि पढमं उवसंहरिय विदियदंडट्ठियजीवे इच्छिय अण्णेगो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो भागहारो ठवेदव्वो, असंखेज्जजोयणविदियदंडायामजीवाणं बहूणमणुवलंभादो । एसो एगसमयसंचिदो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणगारे अवणिदे रज्जुगुणिदसंखेज्जपदरंगुलाणि गुणगारो होदि । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त- जोणिणीणं वत्तव्वं । सेस गुणट्ठाणाणं तिरिक्खोघभंगो । वरि जोगिणी असंजदसम्माइट्टीणं उववादो णत्थि । तीनों ही लोकोंके भाजित करने पर पल्योपमका असंख्यातवां भाग आता है, इसलिये सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें मारणान्तिकरु मुद्धातगत पंचेन्द्रिय तिर्यत्र पर्याप्त जीव रहते हैं, यह बात सिद्ध हुई । तथा मारणान्तिकसमुद्वातगत पंचेन्द्रिय तिर्येच पर्याप्त जीव तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । इसीप्रकार मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और योनिमतियों का कथन करना चाहिये । उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीम लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। यहां पर उपपादक्षेत्र के लाते समय मारणान्तिकक्षेत्र के समान कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि प्रथम दंडका उपसंहार करके दूसरे दंडमें स्थित जीवोंका प्रमाण लाना इच्छित है, इसलिये पल्यापम के असंख्यातवें भागप्रमाण एक दूसरा भागहार स्थापित करना चाहिये, क्योंकि, असंख्यात योजन आयामवाले दूसरे दंड में स्थित जीव बहुत नहीं पाये जाते हैं। यह एक समय में संचित जीवराशि हुई, इसलिये आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणकारके अपनीत करने पर राजु गुणित संख्यात प्रतरांगुल गुणकार होता है। इसीप्रकार उपपादको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और योनिमतियों का कथन करना चाहिये । उपपादकी अपेक्षा शेष गुणस्थानोंका कथन तिर्यंच ओधके कथन के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यचों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका उपपाद नहीं होता है । विशेषार्थ - यहांपर जो प्रथम दंड आदिका कथन किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि विग्रहगतिमें मरणक्षेत्र से लगाकर प्रथम मोड़े तक जीवका जो सीधा गमन होता है वह प्रथम दंड है । तथा प्रथम मोड़ेसे लगाकर द्वितीय मोड़े तक जीवका जो सीधा गमन होता है वह द्वितीय दंड है । इसीप्रकार से तीसरा दंड भी समझना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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