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________________ ११ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ३, २. एगरज्जु खंडिय तत्थ अद्वैतालीसखंडमहिय-णवरज्जुभुजाणि भुजकोडिपाओग्गकण्णाणि कण्णभूमीए आलिहिय दोसु वि दिसासु मज्झम्मि फालिदे तिण्णि तिण्णि खेत्ताणि होति । तत्थ दो खेत्ताणि अद्धट्ठरज्जुस्सेहाणि छब्बीसुत्तर-वेसदेहि एगरज्जु खंडिय तत्थ एगट्टिखंडब्भहियखंडसदेण सादिरेयचत्तारिरज्जुविक्खंभाणि दक्षिण-वामहेट्ठिमकोणे तिण्णि रज्जुबाहल्लाणि, दक्षिण-वामकोणेसु जहाकमेण उवरिम-हेटिमेसु दिवड्डरज्जुवाहल्लाणि, अवसेसदोकोणेसु एगागासबाहल्लाणि, अण्णत्थ कम-वड्डिगदवाहल्लाणि घेत्तूण तत्थ एगखेत्तस्सुवरि विदियखेत्ते विवज्जासं काऊण दृविदे सव्वत्थ तिण्णि रज्जुबाहल्लखेत्तं होइ । एदस्स वित्थारमुस्सेहेण गुणिय वेहेण गुणिदे खायफलमेत्तियं होइ ४९११३ । अवसेसचत्तारि खेत्ताणि अद्भुट्ठरज्जुस्सेहाणि छव्वीसुत्तरवेसदेहि एगरज्जु खंडिय तत्थ एगट्टिअधोविस्तार ९४३ है। इसी विस्तारको यहां त्रिकोण क्षेत्रकी अपेक्षासे 'भुजा' कहा है। तथा उन दोनों त्रिकोण क्षेत्रोंका भुजा और कोटिके यथायोग्य संभवित कर्णका प्रमाण है। इन दोनों त्रिकोण क्षेत्रोंको कर्णभूमिसे लेकर दोनों ही दिशाओं में बीच मेंसे काटनेपर तीन तीन क्षेत्र हो जाते हैं। विशेषार्थ-- यहां पर त्रिकोण क्षेत्रके भुजा और कोटिका प्रमाण तो दिया है, पर कर्णका प्रमाण नहीं दिया है। उसके निकालनेकी प्रक्रिया यह है कि भुजाके प्रमाणका वर्ग और कोटिके प्रमाणका वर्ग जितना हो, उन्हें जोड़कर उसका वर्गमूल निकालना चाहिये, जो वर्गमूलका प्रमाण आवे, वही कर्णरेखाका प्रमाण समझना चाहिए। उक्त प्रकारसे उत्पन्न हुए इन तीन तीन क्षेत्रों में एक एक आयतचतुरस्त्रक्षेत्र और दो दो त्रिकोणक्षेत्र जानना चाहिये। उनमें सात राजु उत्सेधवाले आयतचतुरस्र क्षेत्रके दायें बायें दोनों ओर जो दो आयतचतुरस्रक्षेत्र हैं, उनमें प्रत्येकका साढ़े तीन राजु उत्सेध है । तथा दो सौ छब्बीससे एक राजुको खंडित कर उनमें एकप्तौ इकसठ खंडोंसे अधिक चार राजु अर्थात् ४३६१ प्रमाण विष्कम्भ है । तथा दक्षिण और वाम (दायें बायें) अधस्तन कोन पर तीन राजु बाहल्य है। अन्य दक्षिण वामकोणोंपर यथाक्रमसे ऊपर और नीचे डेढ़ राजु बाहल्य है। अवशिष्ट दो कोनोंपर एक आकाशप्रदेश-प्रमाण बाहल्य है। और अन्यत्र अर्थात् बीचमें कंमसे वृद्धिको प्राप्त बाहल्य है । इसप्रकारके इन दोनों आयतचतुरस्र क्षेत्रों को लेकर (उठाकर) उनमें एक क्षेत्रके ऊपर दूसरे क्षेत्रको विपर्यास अर्थात उलटा करके स्थापित करनेपर सर्वत्र तीन राजु बाहल्यवाला क्षेत्र हो जाता है। इसके विस्तारको उत्लेधसे गुणाकर पुनः वेध (मोटाई ) से गुणा करने पर घनफल ४३६१ x ३३ x ३ = ४९११५ इतना हो जाता है । अब अवशिष्ट जो चार त्रिकोण क्षेत्र हैं, वे साढ़े तीन राजु उत्सेधवाले हैं, तथा दोसौ छब्बीससे एक राजुको खंडितकर उनमेंसे एकसौ इकसठ खंडोंसे अधिक चार राजु अर्थात् १ प्रतिषु ' कम्म- ' इति पाठः।। २इष्टो बाहुर्यःस्यात् तत्स्पर्धिन्या दिशीतरो बाहः । ध्यसे चतुरसे वा सा कोटिः कीर्तिता तज्जैः॥ तत्कृत्योयोगपदं कर्णः। लीलावती क्षेत्रव्य. १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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