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________________ २१४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, ३३. सव्वलोगो वा ॥ ३३॥ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेत्ति अणुवट्टदे । एत्थ ताव 'वा' सहवो उच्चदेसत्थाण-वेदण-कसायपदगदेहि पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएहि तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कुदो ? अड्डाइज्जदीव-समुद्देसु कम्मभूमिपडिभागे सयंपहपव्यदपरभागे च तेसिं संभवादो । अदीदकाले सयंपहपधदपरभागं सव्वं ते पुसंति त्ति तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत खेतं होदि । तस्साणयणविधाणं वुच्चदे--सयंपहपव्यदभंतरखेत्तं जगपदरस्त संखेजदिभागं रज्जुपदराम्हि अवणिदे सेसं जगपदरस्स संखेज्जदिभागो होदि । तं संखेजसूचिअंगुलेहि गुणिदे' तिरियलोगस्स संखेजदिभागो होदि । अपज्जत्ताणमंगुलासंखेज्जदिभागोगाहणाणं कधं संखेज्जंगुलुस्सेधो लब्भदे ? ण, मुअपंचिंदियादितसकलेवरेसु अंगुलस्स संखेजदिभागमादि कादण जाव संखेज्जजोयणाणि त्ति कमवड्डीए हिदेसु उप्पञ्जमाणाणमयञ्जत्ताणं संखेज्जंगुलुस्सेधं पडि विरोहाभावादो। अधवा सव्वेसु दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्ख पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्त जीवोंने अतीत और अनागतकालकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ ३३ ॥ इस सूत्रमें 'पंचेन्द्रियतिर्यचअपर्याप्त' इस पदकी अनुवृत्ति होती है। अब यहांपर 'घा' शब्दका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्धात, इन पदोंको प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातघां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, भढाईद्वीप और दो समुद्रोंमें, तथा कर्मभूमिके प्रतिभागवाले रवयंप्रभपर्वतके परभागमें पंचे. न्द्रियतिथंच लमध्यपर्याप्त जीवोंका होना सम्भव है। अतीतकालमें स्वयंप्रभपवर्तके सम्पूर्ण परभागको घे जीव स्पर्श करते हैं, इसलिए वह क्षेत्र तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र होता है। अब उस क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं- स्वयंप्रभपवर्तका आभ्यन्तर क्षेत्र जगप्रतरके संख्यातवें भागप्रमाण है। उसे राजुप्रतरमेंसे घटा देनेपर शेष क्षेत्र जगप्रतरका संख्यातमा भाग होता है। उसे संख्यात सूव्यंगुलोले गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संण्यातवां भाग हो जाता है। - शंका- अंगुलके असंख्यातवे मागमात्र अवगाहनवाले लध्यपर्याप्तक जीवोंके संस्थात भंगुलप्रमाण उत्सेध कैसे पाया जा सकता है? समाधान -नहीं, क्योंकि, मृत पंचेन्द्रियादि सजीयोंके अंगुप्लके संख्यासवे भागको आदि करके संस्पात योजनों तक क्रमवृद्धिसे स्थित शरीरों में उत्पन्न होनेवाले लयपर्याप्त मीवोंके संख्यात अंगुल उत्सेधके प्रति कोई विरोध नहीं है। अथवा, सभी द्वीप और समुद्रोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच लध्यपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि १ प्रतिषु ' गणिदेहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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