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________________ १, ५, २७६.] कालाणुगम चक्खुदंसणिकालपरूवणं [१५३ जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु चदुवाणी ओघं ॥ २७३ ॥ कुदो ? ओघादेसेसु चदुण्हं गुणट्ठाणाणं संजमभेदाणुवलंभा। संजदासंजदा ओघं ॥ २७४ ॥ सुगमो एदस्स अत्थो। असंजदेसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिहि ति ओघं ॥ २७५॥ एदस्स वि अत्थो अवधारिओघद्धाणं सुगमो । एवं संजममग्गणा समत्ता । दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठी केवचिरं कालादो होति, णाणाजीवं पडुच्च सम्बद्धा ॥ २७६ ॥ कुदो ? चक्खुदंसणिमिच्छादिट्ठिविरहिदकालाभावा । ___ यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें अन्तिम चार गुणस्थानवाले जीवोंका काल ओघके समान है ॥ २७३ ॥ ___क्योंकि, ओघ और आदेशमें चारों गुणस्थानोंके संयमोंमें कोई भेद नहीं पाया जाता है। संयतासंयतोंका काल ओषके समान है ॥ २७४ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है। असंयत जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक असंयतोंका काल ओघके समान है ॥ २७५ ॥ जिन्होंने ओघसम्बन्धी कालको भलीभांति अवधारण किया है, ऐसे शिष्यों के लिए इस सूत्रका अर्थ सुगम है। __इस प्रकार संयममार्गणा समाप्त हुई। दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल होते हैं ॥ २७६ ॥ क्योंकि, चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंसे रहित कालका अभाव है। १xxx संयतासंयतानtxx सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. २xxx असंयतानां च सामान्योक्तः कालः । स. सि. १,८. ३ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दशनिषु मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया सर्वः कालः। स. सि. १,८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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