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________________ ४५४] छक्खंडागमे जीवट्टाणं [ १, ५, २७७. एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७७ ॥ कुदो ? सम्मामिच्छादिहिस्स असंजदसम्मादिहिस्स संजदासंजदस्स संजदस्स वा दिट्ठमग्गस्स मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णद्धमच्छिय गुणंतरं गदस्स अंतोमुहुत्तकालुवलंभा। उकस्सेण वे सागरोवमसहस्साणि ॥ २७८ ॥ उदाहरणं- एगो अचक्खुदंसणी मिच्छादिट्ठी चक्खुदंसणीसु उववण्णो। चक्खुदसणी होदूण वे सागरोवमसहस्साणि परिभमिय अचक्खुदंसणं गदो । लद्धिअपज्जत्तेसु चक्खुदंसणं णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं व किण्ण उच्चदे ? ण, तम्हि भवे तत्थ चक्खुदंसणुवजोगाभावा । णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं तम्हि भवे णियमेण चक्खुदंसणुव जोगुवलंभा । सासणसम्मादिढिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥२७९॥ कुदो ? चक्खुदसणविरहिदसासणादीणमभावा । एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है ॥ २७७ ॥ क्योंकि, दृष्टमार्गी सम्याग्मिथ्यादृष्टि, या असंयतसम्यग्दृष्टि, या संयतासंयत, या संयतके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहां पर सर्व जघन्य काल रह करके अन्य गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है। चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट काल दो हजार सागरोपम है ॥ २७८ ॥ उदाहरण- कोई एक अवक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव चक्षुदर्शनियोंमें उत्पन्न हुआ, और चक्षुदर्शनी होकर दो हजार सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके अचक्षुदर्शनको प्राप्त हो गया। (इस प्रकार सूत्रोक्त काल सिद्ध हुआ।) शंका-निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके समान लब्ध्य पर्याप्तकोंमें चक्षुदर्शन क्यों नहीं कहा? समाधान- नहीं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तकोंके उसी भवमें चक्षुदर्शनोपयोगका अभाव पाया जाता है। किन्तु निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके तो उसी भवमें नियमसे ही चक्षुदर्शनोपयोग पाया जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछस्थ गुणस्थान तक चक्षुदर्शनी जीवोंका काल ओषके समान है ।। २७१ ।। क्योंकि, चक्षुदर्शनसे रहित सासादनादि गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं । १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स.सि. १,८. २ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहसे । स. सि. १,.. ३ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां क्षीणकषायान्तानी सामान्योक्तः कालः। स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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