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________________ १, ४, ६६. ] फोसणा मे थारकाइयफोसणपरूवणं [ २४९ तीदाणा गवट्टमाणकालेसु सव्वलोगो पोसिदो । कुदो ? तस्सहावत्तादो । तेऊणं पुढविभंगो वरि उब्विय परिणदेहि वट्टमाणकाले पंचन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तीदे तिहूं लोगाणमसंखेजदिभागो, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो । तं जधा - तेउक्काइया पज्जत्ता चेव वेव्वियसरीरं उट्ठावेंति, अपजत्तेसु तदभावा । ते च पञ्जता कम्मभूमीसु चैव होति त्ति । सयंपहपव्त्रदपरभागखेत्तं जगपदरे बद्धे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदिति । अधवा बादर ते उकाइयपत्ता कम्मभूमी उप्पण्णा वाउसंबंधेण संखेज्जजोयणबाहल्लं तिरियपदरं अदीदकाले सव्वमावृरिय विउव्वंति चि गहिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो चेव होदि । बादरतेकाइया बादरपुढविभंगो, बादरपुढविकाइया इव बादरतेउकाइया वि सव्वपुढवीसु अच्छंति त्ति । वरि वेउव्वियपदस्स तेउकाइयवेउच्वियपदभंगो । वाउकाइयाणं तीदाणागदकाले उकाइयाणं भंगो । णवरि वेउव्वियस्स वट्टमाणकाले माणुसखेत्तगदविसेसो ण जाजिद | अदीकाले वेउब्वियपरिणदेहि वाउक्काइएहि तिन्हं लोगाणं संखेज्जदिभागो, दोलोगेर्हितो असंखेज्जगुणो पोसिदो । सत्थाण- वेदण-कसाय परिणदेहि बादरवाउकाइए हि इन तीनों कालों में सर्वलोक स्पर्श किया है, क्योंकि, उनका यह स्पर्शनक्षेत्र स्वभाव से ही है । अग्निकायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र पृथिवीकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष बात यह है कि वैकिसमुद्धातपदपरिणत अग्निकायिक जीवोंने वर्तमानकालमें पांचों प्रकार के लोकोंका असंख्यातवां भाग तथा भूतकाल में सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग और तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है । वह इस प्रकार से है तेजस्कायिक पर्याप्त जीव ही वैक्रियिकशरीरको उत्पन्न करते हैं, क्योंकि, अपर्याप्त जीवों में वैक्रियिकशरीर के उत्पन्न करनेकी शक्तिका अभाव है । और वे पर्याप्त जीव कर्मभूमिमें ही होते हैं, इसलिए स्वयम्प्रभपर्वतके परभागवर्ती क्षेत्रको जगप्रतररूपसे करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है । अथवा कर्मभूमि में उत्पन्न हुए बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव वायु के सम्बन्ध से अतीतकाल में संख्यात योजन बाहल्यवाले सर्व तिर्यक्-प्रतरको व्याप्त करके विक्रिया करते हैं, ऐसा अर्थ ग्रहण करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग ही होता है । बादर तेजस्कायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र बादर पृथिवीकायिक जीवोंके स्पर्शनक्षेत्रके समान है, क्योंकि, बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान बादर तेजस्कायिक जीव भी सभी पृथिवियों में रहते हैं । विशेष बात यह है कि वैक्रियिकपदका स्पर्शन तेजस्कायिक जीवोंके वैक्रियिकपदके समान जानना चाहिए । वायुकायिक जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र अतीत और अनागतकालमें तेजस्कायिक जीवोंके समान है। विशेष बात यह है कि वर्तमानकालमें वैक्रियिकपदकी मनुष्यक्षेत्रगत विशेषता नहीं जानी जाती है । अतीतकाल में वैक्रियिकपदपरिणत वायुकायिक जीवोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थान• स्वस्थान, वेदना और कषायसमुद्वासपरिणत बादरवायुकायिक जीवोंने अतीत, अनागत और Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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