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________________ १, ४, २५ ] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [२०१ खंडेण लद्धा चारि सहस्सा छण्णउदी। रूपोनमादिसंगुणमेकोनगुणोन्मथितमिच्छा' एदेण अज्जाखंडेण लद्धाणि वे सदाणि तेहत्तराणि, एदाणि दुगुणिय एक्कावीसमवणिदे गुणगारसलागासंकलणा होदि । कथमेकवी लस्स उप्पत्ती ? एणरूवं विरलिय चत्तारि दादण अण्णोण्णब्भत्थं करिय पंचहि गुणिय एगादिचदुग्गुणसंकलणं पक्खित्ते अवणयणसलागपमाणं एक्कावीस होदि । एत्थ करणगाहा -- इट्ठसलागाखुत्तो चत्तारि परोप्परेण संगुणिय । पंचगुणे खित्तव्वा एगादिचदुगुणा संकलणा ॥ ७ ॥ एत्थ सव्वत्थ दुरूवूणगच्छं विरलेदव्यं ५।२१। ८५।३४१ । १३६५ । ५४६१ । एदाओ अवणयणधुवरासीओ अणंतरहेट्ठिमं चदुहि गुणिय रूवं पक्खित्ते उप्पज्जंति जाव 'रूपों में गुणा और अर्थों में वर्गणा' इस आर्याखंडसे चार हजार छयानवै (४०९६) संख्या प्राप्त होती है । पुनः उक्त प्रकारसे प्राप्त शलाकाओंमेंसे 'एक कम करके शेषको आदिसे गुणा करे, पुनः एक कम गुणकारशलाकाका भाग दे, तो इष्टराशि उत्पन्न हो जाती है' इस आर्याखंडके अनुसार दो सौ तेहत्तर (२७३) संख्या प्राप्त होती है। इस संख्याको हुनाकर उसमेंसे इक्कीस घटा देनेपर गुण कारशलाकाओंका संकलन हो जाता है । उदाहरण-प्रथम तीन समुद्रोंका संकलन- शलाका ३; १६४१६४१६ = ४०९६; ४०९६ - १.४०९५ -- २७३; २७३४२%५४६: ५४६-२१ % ५२५ तीन समुद्रोंकी संकलित गुणकारशलाका।। शंका-यहांपर घटाई जानेवाली इक्कीस संख्याको उत्पत्ति कैसे हुई ? समाधान- एकरूपको विरलित कर उसके ऊपर चारको देयरूपसे देकर अन्योन्या भ्यास करके उसे पांचसे गुणाकर एक आदि चतुर्गुणसंकलनको प्रक्षेप करने पर अपनयनशलाकाका प्रमाण इक्कीस हो जाता है। उदाहरण–२१ की उत्पत्ति-३ - २ = १, १ - ४, ४४५ - २०; २० + १ = २१ तीन समुद्रोंकी अपनयनशलाका. इस विषय में यह करणगाथा है इष्ट शलाकाराशिका जो प्रमाण हो उतने वार चारको रखकर परस्परमें गुणा करे, पुनः उसे पांचसे गुणा करे और फिर एक आदि चतुर्गुणसंकलनराशिको प्रक्षेप करना चाहिए। ऐसा करनेपर अपनयनराशिका प्रमाण आ जाता है ॥ ७ ॥ - यहांपर सर्वत्र दो रूप कम गच्छराशिका विरलन करना चाहिए । ५, २१, ८५, ३४१, १३६५, ५४६१, ये घटाई जाने वाली ध्रुवराशियां अनन्तर अधस्तन राशिको चारसे गुणाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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