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________________ १, ३, २.] खेत्ताणुगमे जीवमहल्लोगाइणापरवणं घणंगुलगुणगारो कधमवगम्मदे १ वुच्चदे- सयंपहगिंदपव्ययपरभागवियतसपजत्तरासी पहाणो इयग्कम्मभूमिजीवहिंतो दीहाउवो महल्लोगाहणो य। भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि । पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ट थोवा, सुहकम्माहियजीवाणं बहुवाणमसंभवादो । सयंपहपव्वयपरभागट्ठियजीवाणमोगाहणा महल्लेत्ति जाणावणसुत्तमेदं संो पुण बारह जोयणाणि गोम्ही भव तिकोसं तु ।। ___ मरो जोयणमेगं माछो पुण जोयणसहस्सो ॥ १२ ॥ एदाओ ओगाहणाओ घणंगुलपमाणेण कीरमाणे संखेज्जाणि घणंगुलाणि हवंति, तेण संखेज्जघणंगुलगुणगारो विहारवदिसत्थाणरासिस्स ठविदो । सयंपहणगिंदपव्वदस्स परदो जहण्णोगाहणा वि जीवा अत्थि त्ति चे ण, मूलग्गसमासं काऊण अद्धं कदे वि संखेज्जघणंगुलदसणादो । तं कधं ? तत्थ ताव भमरखेत्ताणयणविधाणं भण्णिस्सामो । शंका-प्रसकायिक पर्याप्तगशिके संख्यातवें भागप्रमाण विहारवत्स्वस्थान राशिका गुणकार संख्यात घनांगुल है, यह कैसे जाना जाता है? समाधान- प्रकृतमें स्वयं प्रभनगेन्द्र पर्वतके परभागमें स्थित त्रसकायिक पर्याप्त जीवराशि प्रधान है, क्योंकि, यह राशि इतर कर्मभूमिज जीवों की अपेक्षा दीर्घायु और बड़ी अवगाहनावाली है । भोगभूमि में तो विकलेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं और वहांपर पंचेन्द्रिय जीप भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि, शुभ कर्मके उदयकी अधिकतावाले बहुत जीवोंका होना असंभव है। स्वयंप्रभ पर्वतके परभागमें स्थित जीवोंकी अवगाहना सबसे बड़ी होती है, इस बातका शान कराने के लिये यह गाथासूत्र है शंख नामक द्वीन्द्रिय जीव बारह योजनकी लम्बी अवगाहनावाला होता है। गोम्ही नामक त्रीन्द्रिय जीव तीन कोसकी लम्बी अवगाहनावाला होता है। भ्रमर नामक चतुरिन्द्रिय जीव एक योजनकी लम्बी अवगाहनावाला होता है, और महामत्स्य नामक पंचन्द्रिय जीव एक हजार योजनकी लम्बी अवगाहनावला होता है। १२॥ योजनों और कोसों में कही गई इन अवगाहनाओंको घनांगुलप्रमाणसे करनेपर संख्यात घनांगुल होते हैं, इसलिये विहारवत्स्वस्थानराशिका गुणकार संख्यात घनांगुल स्थापित किया हैं। शंका-स्वयंप्रभनगेन्द्र पर्वतके उस ओर जघन्य अवगाहनावाले भी जीव पाये जाते है? समाधान-नहीं, क्योंकि, जघन्य अवगाहनारूप मूल अर्थात् आदि और उत्कृष्ट अवगाहनारूप अन्त, इन दोनोंको जोड़कर आधा करनेपर भी संख्यात धनांगुल देखे जाते हैं। उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनाओंको जोड़कर आधा करने पर संख्यात घनांगुल कैसे आते हैं. अगे इसका स्पष्टीकरण करनेके लिये उन द्वीन्द्रियादिकोंकी अवगाहनाओं में से पहले भ्रमर. क्षेत्रके घनफलके निकालने का विधान कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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