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________________ १९४१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ४, २५० तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो । एत्थ ताव तिरिक्खसासणसत्थाणसत्थाणखेत्ताणयणविधाणं चुच्चदे- लवण-कालोदग-संयभुरमणसमुद्दे मोत्तूण सेससमुद्देसु णत्थि सत्थाणसत्थाणसासणा, तत्थुप्पण्णतसजीवाणमभावादो। सव्वेसु दीवेसु अस्थि सत्थाणसत्थाणसासणा, तत्थ तसजीवाणमुप्पत्तिदंसणादो। सत्थाणसत्थाणसासणेहि सव्वे दीवा तिण्णि समुद्दा तीदकाले पुसिज्जति त्ति तेसिमाणयणट्ठमिमा परूवणा कीरदे । जंबूदीवो खेत्तगुणिदेण सत्त णव सुण्ण पंच य छण्णव चदु एक वंच सुण्णं च । जंबूदीवस्सेदं गणिदफलं होइ णायव्वं ॥४॥ .......................................... अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । अब यहांपर तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्रके निकालनेके विधानको कहते हैं . लवणसमुद्र, कालोदकसमुद्र और स्वयम्भूरमणसमुद्रको छोड़कर शेष समुद्रों में स्वस्थानस्वस्थान पवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं, क्योंकि, वहांपर उत्पन्न होनेवाले त्रस जीवोंका अभाव है। हां, सर्वद्वीपोंमें स्वस्थानस्वस्थान पदवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, क्योंकि, वहांपर त्रसजीवोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। स्वस्थानस्वस्थानपदस्थित सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीवोंने सर्वद्वीप और तीन समुद्र अतीतकालमें स्पर्श किये हैं, इसलिए उनका स्पर्शनक्षेत्र लानेकेलिए यह प्ररूपणा की जाती है । जम्बूद्वीपके क्षेत्रका गणित करनेपर--- सात, नौ, शून्य, पांच, छह, नौ, चार, एक, पांच और शून्य अर्थात् ७९०५६९४१५० बर्गयोजन प्रमाण जम्बूद्वीपका क्षेत्रफल होता है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ४॥ १ अंबरपंचेकचउणव छ पण सुण्ण णवय सत्तो व । अंककमे जोयणया जंबूदीवस्स खेत्तफलं ॥ ५८ ॥ ७९०५६९४१५०। एक्को कोसो दंडा सहस्समेक्क हुवेदि पंच सया। तेवण्णाए सहिदा किंकू हत्थे ससुण्णाइं ॥ ५९॥ को. १ दंड १५५३1०1०1 एक्को होदि विहत्थी सुण्णं पादम्मि अंगुलं एक । जव छ तिय जूवा लिक्खाउ तिणि भादवा ॥ ६०॥ ०६।३ । कम्मक्खोणीए दुवे वालग्गा अवरभोगभूमीए। सत्त हुवंते मज्झिमभोगखिदीए वि तिणि पुढे ॥ ६१॥ २१७.३ सत्त य सण्णासण्णा ओसण्णासण्णया तहा एक्को । परमाणूण अणंताणता संखा इमा होदि ॥६२॥ १। अडतालसहस्साई पणबण्णुत्तर च उस्सया अंसा । हारो एक लक्खं पंच सहस्साणि चउ सया णवयं ॥ ६३ ॥१८४५५ ति. प. माणुसलोया.। पण्णासमेकदालं णव छप्पणास मुण्ण णव सदरी | साहियकोसं च हवे मंदीवस्स सहुमफलं ॥ ३१३ ॥ त्रि. सा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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