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________________ १, ४, २५.] फोसणाणुगमे तिरिक्खफोसणपरूवणं [१९१ चितमेरु-कुलसेल कुंडल-रुजग-माणसुत्तर-णगिंदवरपबदादिरुद्धखेत्तं मोतूण सव्वं फुसंति त्ति लक्खजोयणबाहलं रज्जुपदरं ठविय उड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेतखेत्तं होदि । वेउव्वियसमुग्धादगदाणं वट्टमाणकाले खेतभंगो । तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणं संखेजदिभागो, दोहि लोगेहिंतो असंखेज्जगुणो फोसिदो । कारणं, वाउकाइयजीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता विउठवणक्खमा वट्टमाणकाले होति', ते रज्जुपदरं पंचरज्जुबाहल्लं अदीदकाले फुसंति त्ति । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फोसिदं, लोगस्स असंखेजदिभागो॥ २४ ॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो खेत्तम्हि परूविदो । सत्त चोदसभागा वा देसूणा ॥२५॥ एत्थ 'वा' सट्ठो बुच्चदे- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसायवेउब्धियसमुग्घादगदसासणसम्मादिट्ठीहिं तीदाणागदकालेसु तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, मेरुप्रमाण, तथा कुलाचल, कुंडलगिरि, रुचकगिरि, मानुषोत्तर और नगेन्द्रवर पर्वतादिकोंसे रुद्ध क्षेत्रको छोड़कर सभी तिर्यच सर्व द्वीप और समुद्रोंका स्पर्श करते हैं। इसलिए एक लाख योजन बाहल्यवाले राजुप्रतरको स्थापन कर ऊपरकी ओरसे उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हो जाता है। वैकि यिकसमुद्धातगत तिर्यंचोंका स्पर्शन वर्तमानकालमें क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। अतीत अनागतकालमें सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका संख्यातवां भाग और तिर्यग्लोक तथा मनुष्यलोक, इन दोनों लोकोंसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। इसका कारण यह है कि पल्योपमके असंख्यातवे भागमात्र वायुकायिक जीव वर्तमानकालमें विक्रिया करनेमें समर्थ होते हैं, और वे पांच राजु बाहल्यवाले एक राजुप्रतरप्रमाण क्षेत्रको अतीतकालमें स्पर्श करते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पशे किया है ॥ २४ ॥ इस सूत्रका अर्थ क्षेत्रप्ररूपणामें कहा जा चुका है। सासादनसम्यग्दृष्टि तियंचोंने भूत और भविष्यकालकी अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ २५ ॥ इस सूत्र में स्थित 'वा' शब्द का अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीत और . १ गो. जी. २५८. २ प्रतिषु । फोसिदं ' इति पाठो नास्ति । ३ सासादनसम्यग्दृष्टिमिलोंकस्यासंख्येयभागः सप्त चतुर्दशभागा वा देशोनाः । स.सि. १,८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001398
Book TitleShatkhandagama Pustak 04
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages646
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size14 MB
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